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(१४)
॥ विं० स्था० पू० ॥
जिनेसर | शुद्ध किरियाधार रे सु० ॥ ९ ॥ ॥ काव्यं ॥
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(१७
विठ समान विनूसणस्स । सुलद्धि सं पत्तिसुपोसणस्स ॥ णमोसदाणंत गुणप्पदस्स णमोणमो सुकिरिया पदस्स ॥ १० ॥ झी श्री क्रियायै नमः १३ इति त्रयोदशपदे श्री किया पूजा ॥ १३ ॥ ॥ दोहा ॥
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शमतारस युत तपरुचिर । जणियो जिन जगन्नान ॥ शिवसुर सुख चंदनफलद । नंद नविपिन समान ॥ १ ॥ सघन करम कानन दहन | करनविमल तपजान ॥ विपिन धूम केतनसमो । जय तप सुगुण निधान ॥ २ ॥ ॥ रागकल्याण तेरीपूजावनीतेरस में एचाल ॥
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मेरीलगी लगन तपचरणें । सकल कुशल मैं प्रथम कुशल ए । दुरित निकाचित हर णें मे० ॥ १ ॥ जैसे गणधर की जिन चरणें । चातक की जल धरणें | जैसे चक्रवाक की अरणें । चकोर की हिम किरणें मे० ॥ २ ॥ जिनवर पिण तदनव शिवजाणें । त्रिणचउना