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॥पां०क०पू० ॥
(१)
न वऊ सुपन शास्त्र विध । अर्थ विचारक रि निज गनमैं ॥ पुत्र रतन फल वचत नृप ति कुल परम कल्याण होत जननमैं ॥ श्रा० २॥ प्रफुलित हरख नरत हिय अलसत । जिन जननी तात सुनि तनमैं ॥ दिन दिन बढत पूवर धन जन मन । शधिक उबाह घर घरनमैं आ० ॥३॥ रूप्य रजत मणि माणक मोतियें । संख प्रवाल शिल वरसन मैं ॥ धनद धनद सुरइंद्र ऊकमतें । जरत नंकार नृपसदन मैं आ०॥ १॥ ताल कंसाल मधु वीण बजावत । गीत गाततननमैं ॥ दु न्दुनि मुरज मृदंग घन गरजत । गरज २ मानं जैसे घनमैं शा० ॥५॥सुर नर लोक मांक अधिकउबाहवाह। निशदिन होत जन जनपदमैं । इंद इंद्राणी नृप दोहद पूरत । म नोरथ होत जोजो मातु मनमैं श्रा० ॥ ६ ॥ परम कल्याण शुलयोग संयोग नयो । शु नघरि गुनग्रह शुनदिन मैं ॥ बरण सकै न ताहि कवि श्वसर कों। आनंद नयो तीन नुवन मैं शा०॥७॥ इति च्यवन पूजा ॥ नझी परम० ए० ज० श्रीच्य० स्वाहा॥
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