Book Title: Jin Pooja Sangraha
Author(s): Ramchandra Gani
Publisher: Rushi Nankchand
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॥ भारती॥
नविनावेंशचनकरी लहोपरमसुखसार २ केवल नाणउदार यातें आनंद शधिक श पार शं० नवसिछस्थ दुनेद तसअंतर बज तरनेद तेतोवरणे किमु कविवार के० ॥१॥ रविजिम श्रमल प्रकाम द्रव्यसकल परिणाम तससला विनतिकार के० ॥२॥ काल त्रय अनुसारें निज निज वेदा शाकारें प्रतिबिंबि त होय तिणवार के० ॥३॥ क्षेत्रथी लोकालो क। शनिरामचंद्रोदया लोक यातें परमानंद अपार के० ॥ ४ ॥
॥श्लोक ॥ सम्यक्तं समुपैति शुझमखिलं यस्माजगन्ना सते साक्षाहस्तगतं त्रिकाल जनितं वतस्फुर त्यंजसा ॥ जायंते तुलसिझयो नवपदे द्रव्यः शुनैः केवलज्ञानं तत्परिपूजयामि सतनं ना वैरनंतं महत् ॥ ५॥ नहीश्री समस्त लोकालोक प्रकाशकाय के वलज्ञानाय जलं चंदनं पु० यजामहे स्वाहा॥ ॥ इति पंचज्ञान पूजा समाप्ता ॥
॥शारती ॥ जै जगसुखकारीवारी। जैसमपद चितधारी
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