Book Title: Jin Pooja Sangraha
Author(s): Ramchandra Gani
Publisher: Rushi Nankchand

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Page 185
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८२ ॥पां०क०पू० ॥ -- -- - - ॥ दोहा ॥ प्रवरनोग प्रनुपुन्यतें । प्रगट प्रगट प्रधा न ॥ गुणग्राहक गृहवासमें । दर्शन ज्ञान निधान ॥ १॥ पनुविन दीनानाथ दया । विन कोंन क हावत कोई रे पु०॥ गहवासै सुधसंयम धा री। शुहसुनावै होइ रे पु०॥ १ ॥ सम्यग दर्शननव निर्वैर्दै स्वतन की जरषोइरे । पुनु ता पुजुकी कोकहि वरनें ॥ सुरनर नारीमो हीरे पू० ॥२॥ शुनलेश्या गुनध्यानरमें नि त । शतम निरमलधोइरे ॥ शात्मरूप नि हारत निजघर । संगसुमति जह जोइरे प्र० ३॥ प्रगट प्रकास आत्मउजियारे । सामक हावत सोइरे । गृहवासै सुधसंयम रागी। लागी लगनसवाइरे पृ०॥४॥ निजप्रभुता प्रनुजीनो लीनो। अंतरशत्रु विगोइरे ॥ वि षयवासना बीणनइलख आतम शक्तिसुंठोइ रे पु० ॥५॥ इमकही फूलचढावें॥ ॥दोहा॥ दाता दीन दयाल प्रनु । देतसंवत्सरीदा न॥दूरकरै दालिद्धजग । त्रिनुवन मांहि - - - For Private And Personal Use Only

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