Book Title: Jin Pooja Sangraha
Author(s): Ramchandra Gani
Publisher: Rushi Nankchand
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१६२
॥ नं० व० पू० ॥
रण । तरण तरणिगुणधरणे ॥ अनंतरूपधर दुरगतिनय हर । परमज्योति अधिकरणे मे ० ॥ २ ॥ करुणाधार विमलगुण आगर नि रूपमशरण शरण मे० । एजिनचरण दीप पूजनसे || चीजे दुख हरणे मे० ॥ ३ ॥ केवल विमल चिदानंद लहिये दीपपूजके क रणें मे० । रतन दीपसे करै आरती हरिगण जिनगुण चरणे मे० ॥ ४ ॥ एप्रनुचरण सेव नवि जनकुं ॥ मृत पद सुवितरणे मे० । कुमति रजनि अज्ञान तिमिर हर । वर शि वचंद सु किरणे मे० ॥ ५ ॥
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(६)
॥ काव्य ॥
मदन सिंधुर सिंधुर वैरिणं । गुरु कषाय करेणु समीरणं ॥ मद धराधरता वल वैरिणं जिनगणं प्रयजे वरदी पकैः ॥ ६ ॥ की पर मा० प्रणत० कठिन० नंदीश्वरा० श्रीरिषना नन चंद्राननं वारिषेण वर्द्धमान प्र० दीपं य जामहे स्वाहा ॥ इति पंचमी दीपपूजा ॥ ५ ॥ दोहा ॥ बीकृत रचना | करिये धरि शुन भाव ॥ बरिये सिवधू परम | प्रय

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