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१०८
॥वि० स्था० पू० ॥
(१)
हंस ना० ॥ ४ ॥ वरनाण सहित सुकिरिया करी फल दातार ॥ ऊवो ज्ञान चरण रसी ला। लहो नव जल पार ना० ॥५॥ ज्ञाना नंद अमृत पीधो । *नरतेसरराय ॥ तिणसे शमत पद लीधो । सुरपति गुण गाय ना० ६॥ सेवी ज्ञान जयत नरेसैं । नये जिन महाराज ॥ सोहें ज्ञान ये त्रिनुवन में । स ज गुण सिरताज ना०॥७॥
काव्य ॥ बद्दछ पजाय गुणुकारस्स । सया पयासी करणो रस्स ॥ मिच्छत शन्नाण तमोहरस्स नमो नमो नाण दिवायरस्स ॥८॥ ही श्री ज्ञानाय नमः ॥ इति अष्टम पदे श्री ज्ञान पूजा ॥८॥
॥दोहा॥ दरशण आश्रय धर्मनों। एहना षटउप मान ॥ दरशण विणनहि चरणचिद । उतरा ध्ययनें जान ॥१॥ जिन दरसण फरस्यो नलो। अंतर मुजरत मान ॥ अईपुगल परि यट रहें। तसु संसार वितान ॥२॥
• मरुदेवीमाय ॥ इत्यपिपाठः ॥
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