Book Title: Jayodaya Mahakavya Purvardha
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 592
________________ २८ ] द्वादशः सर्गः ५६९ , किलेत्यादि । इयं यागावनिर्यज्ञभूमिरित्यत्र विशेषकम् पवित्रो विमलो भागो यस्याः, वनितापक्षं पवित्रो वज्राकारोऽतिकृशो मध्यभागः कटिदेशो यस्याः सा, तिलकमिवाचरतीति frontfतो यो मञ्जुदीपको यस्याः स्त्रीपक्षे तिलकमेव मञ्जुदीपकस्थानीयो यस्याः सा, रम्भाश्चतुष्कोणस्थ - कदलीस्तम्भस्तैः सूचिता प्रकाशिता, उरुशर्मणो मङ्गलस्य भाः शोभा यस्याः सा स्त्रीपक्षे रम्भे इव रुचिते शोभने ऊरू जसे ताभ्यां शर्मभा यस्याः सा, सफलौ फलसहितौ यावच्चैः स्तनौ इव उन्नतो कुम्भो मङ्गलकलशौ ताभ्यां शुम्भशोभमानोsh भूवेशो यस्याः सा स्त्रीपक्षे सफलौ पतिसंयोगशालिनी, उच्चै रूपौ स्तनौ पयोधरावेव कुम्भ ताभ्यां शुम्भन्नको वक्षो यस्याः सा विलसन्ती त्रिवलीनां मेखलानामिष्टिर्नाभिरेव कुण्डं यस्याः सा स्त्रीपक्षे त्रिवलीनामुदर स्थितानामिष्टिरच यत्रैतावुङ्नाभिरेव कुण्डं यस्याः सा शुचिभिः पुष्पैरभिमतमलङ्कृतमत एव प्रसन्नं तुण्डं तल स्थानं यस्याः सा पक्षे शुचिना पुष्पेणाभिमतं तुल्यमत एवं प्रसन्नं तुण्डं मुखं यस्याः सा द्विजराजानां शेषादिनागानां तिरस्क्रिया निवारणं विघ्नहरणमर्थो यत्र तत्, पक्षे द्विजराजस्येन्दोस्तिरस्क्रियार्थमेतस्या लपनश्रीर्मुखशोभा किलेत्येवं शिक्षणाय संज्ञापनायैव वेतो यागगुरुराट् पुरोहितो यो विरागः सांसारिकप्रयोजननिःस्पृहः सोऽथ द्रुतमेवाक्षतमुष्टिना वरराजमताडयत् मङ्गलाक्षतारोपणं चकारेत्यर्थः ॥ २५-२७ ॥ यदभूद्वचसा त्रिपूरुषीति भुवि रत्नत्रयवच्छ्रियः प्रतीतिः । द्वयतः स्थितिकारणैकरीति दुनिश्रेयस के यशः प्रणीतिः ॥ २८ ॥ यदभूदिति । इह परस्परमुभयतो वरयात्रिक- माण्डपिकयोवंचसा त्रिपूरवी गोत्र गुरुराट् विराग। सन् अथ द्रुतं अक्षतमुष्ठिना एतत् (एतल्लपनं) अताडयत् । अर्थ : यह यज्ञभूमिरूपीका नायिका पवित्र मध्यभाग वाली और मनोवांछित सिद्ध करनेवाली है, तिलकके स्थानपर इसमें दीपक जल रहा है। और कदलीके स्तम्भ ही जिसके ऊरुभाग ( जंघाएँ ) है । अतएव यह यज्ञभूमि वनिताके समान सुशोभित हो रही है ॥ २५ ॥ विलसित होती हुई त्रिवलीके साथ जो नाभि उसका अनुकरण करनेवाला कुण्ड है और जिसका मुखभाग फूलोंसे सुहावना है, कलंकरहित एवं निर्मल है और फल-सहित जो मंगल-कुम्भ वही जिनका स्तन सरीखा है ऐसी यह यागावनि वनिताके समान शोभित हो रही है || २६ ॥ किन्तु जिसके मुखकी शोभा द्विजराज (चन्द्रमा और ब्राह्मण) के तिरस्कारके लिए है इसलिए उसको शिक्षण देनेके लिए ही मानों राग-रहित होते हुए यज्ञके पुरोहितने अक्षतोंको मुष्ठिसे इसके मुखको ताड़ना दी । अर्थात् यज्ञभूमिपर अक्षताञ्जलि क्षेपण की ॥। २७ ॥ अन्वय : भुवि रत्नत्रयवत् श्रियः प्रतीतिः द्वयतः स्थितिकारणकरीतिः मृदुनिःश्रेयसके यशः प्रणीतिः इति वचसा त्रिपुरुषी अभूत् । ६२ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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