Book Title: Jayodaya Mahakavya Purvardha
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 610
________________ ७१-७२] द्वादशः सर्गः ५८७ यस्यास्तीति तस्मै सर्पिषे सुधान्धसो देवा अपि हि निश्चयेनानुयान्तोऽनुगच्छन्तः स्पृहयालवो भवन्तीति तस्मात् ॥ ७० ॥ ननु तत्करपल्लवे सुमत्वं पथि ते व्योमनि तारकोक्तिमत्वम् । जनयन्ति तदुज्झिताः स्मलाजा निपतन्तोऽग्निमुखे तु जम्भराजाः ।।७१।। नन्विति । तयोज्झिता वधूपरित्यक्ता लाजास्तस्याः करपल्लवे सुमत्वं कुसुमरूपत्वं जनयन्ति स्म । पथि मार्गव्योमनि तारकोक्तिमत्वं नक्षत्ररूपत्वं जनयन्ति स्म । अग्निमुखे निपतन्तस्ते पुनर्जम्भराजाः प्रधानदन्ता इव जनयन्ति स्म चक्रः । ननु नानाविकल्पने । उल्लेखो ध्वन्यते ॥ ७१॥ नम एतदभङ्गमङ्गलार्थमभवद्धोमरवश्च वृप्तिसार्थः । मुहुरेव मखे सकाम्यनादः यजमानाय जिनेशिनां प्रसादः ॥७२॥ नम इति । तत्र मखे हवनकर्मणि समुक्तं नम इत्येतद् ॐ सत्यजाताय नम इत्यादि, तदभङ्गस्याविच्छिन्नरूपस्य मङ्गलस्यार्थमभवत् । होमरवश्च, ॐ सत्यजाताय स्वाहा-- इत्याविमयः स तृप्तिसार्थः सन्तर्पणकारकः । एवमेव पुनः स काम्यनाद., ॐ षट् परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु-एवं रूपः स मुहुरुच्यमानो यजमानाय ऋतुकडे जिनेशिनां मङ्गललोकोत्तमशरण्यानां प्रसाव इवाभवत् ॥ ७२ ॥ है तो भी कोई बात नहीं, क्योंकि कवियोंके कहने में घी उस अमृतसे भी अधिक उत्तम है, देवता लोग मनुष्योंके द्वारा यज्ञमें होम किये जाने वाले घी की भी सुगन्ध लेकर प्रसन्न होते हैं ।। ७० ।। अन्वय : ननु तदुज्झिताः लाजा अग्निमुखे निपतन्तः तु जम्मराजाः ते तत्करपल्लवे सुमत्वं पथि व्योमनि तारकोक्तिमत्वम् जनयन्ति स्म । अर्थ : हवनमें जो लाजा क्षेपण की जा रही थीं, वे उन दोनों वर-वधुओंके करपल्लवोंमें तो फूल सरीखी प्रतीत होती थीं और डालते समय आकाशमें ताराओंके सदृश प्रतीत होती थीं, तथा अग्निमें पड़ते समय वे अग्निकी दन्तपंक्ति-सी प्रतीत होती थीं ।। ७१ ।। __ अन्वय : मखे नम एतत् अभङ्गमङ्गलार्थम् होमरवश्च तृप्तिसार्थः मुहुरेव सकाम्यनादः यजमानाय जिनेशिनां प्रसादः अभवत् । अर्थ : हवनके समय जो 'सत्य जाताय नमः' इत्यादि मन्त्रोंमें 'नमः' बोला जाता था वह तो अभंग मंगलके लिए (अखंड सौभाग्यके लिए) बोला जाता था, जो 'ॐ सत्यजाताय स्वाहा' इत्यादि मन्त्रोंके साथ स्वाहा शब्द बोला जाता था वह सन्तर्पण करनेवाला था, तथा जो 'ॐ षट् परमस्थानं भवतु' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690