Book Title: Jayodaya Mahakavya Purvardha
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 611
________________ ५८८ जयोदय-महाकाव्यम् [ ७३–७४ विशदानि पदानि गेहिसानौ परमस्थानसमर्हणानिवानौ । गतवत्स्युरनागतानि ताभ्यां कलिताः सप्त परिक्रमाः क्रमाभ्याम् ॥७३॥ विशदानीति । नौ आवयोर्गेहिसानौ गृहस्थमार्गे परमस्थानीव समर्हणानि मान्यानि विशदानि स्वच्छानि पदानि यान्यनागतानि भविष्यत्कालप्रभवाणि गतवत्प्राप्तानीव स्युरिति किल ताभ्यां वधू- वराभ्यां द्वाभ्यां क्रमाभ्यां चरणाभ्यामेव सप्त परिक्रमाः प्रदक्षिणाः कलिता बत्तास्तत्र सज्जातिः, सद्गृहस्थत्वं पारिव्राज्यं, सुरेन्द्रता, चक्रित्वं तीर्थकृत्त्वं च परिनिर्वृतिरित्यपीति सप्त परमस्थानानि सन्ति ॥ ७३ ॥ परितः परितर्पितानलं तं कनकान्द्रीन्द्र मिवाधुनोल्लसन्तम् । मिथुनं दिनरात्रिवज्जगाम सुखतोऽन्योन्यसमीक्षया वदामः ।। ७४ ।। परित इति । परितपितश्चासावनलोऽग्निश्च तमतएव कनकाद्रीन्द्र सुमेरुमिवोल्लसन्तं प्रकाशमानमधुना दिन-रात्रिवत्तन्मिथुनं वधू - वर युगलमपि किलान्योन्यस्य परस्परस्य इत्यादि काय मन्त्र बार-बार बोला जाता था वह यजमानके लिये जिनभगवान्का प्रसाद स्वरूप था ॥ ७२ ॥ अन्वय : गेहिसानो नौ परमस्थानसमर्हणानि विशदानि पदानि गतवत् अनागतानि तानि स्युः वा ताभ्यां क्रमाभ्यां सप्त परिक्रमाः कलिताः । अर्थ : गृहस्थीरूपी पर्वत के शिखरपर ये सात परमस्थान पद भूतकालके समान हमारे लिए भविष्यकालमें भी निर्दोष बने रहें, इस बातकी सूचना देनेके लिए ही दोनों वर-वधुओंने अपने पदों चरणोंसे घूमते हुए उस अग्निकी (सात) प्रदक्षिणाएँ कीं । विशेषार्थ - विवाह के समय जो सात प्रदक्षिणाएँ दी जाती हैं उनको देनेका अभिप्राय यह है कि हम लोगोंको सात परम स्थानोंकी प्राप्ति हो । वे सा परमस्थान ये हैं - १. सज्जातित्व, २. सद्गृहस्थत्व, ३. पारिव्रजत्व, ४ . सुरेन्द्रत्व, ५. चक्रवत्तित्व, ६. तीर्थंकरत्व और ७. परिनिर्वाणत्व | छह प्रदक्षिणाओंके समय वधू आगे रहती है और वर उसके पीछे रहता है । अन्तिम सातवी प्रदक्षिणाके समय वर आगे हो जाता है और वधू उसके पीछे रहती है । इसका अभिप्राय यह है कि सातवाँ परमस्थान जो परिनिर्वाणत्व अर्थात् निर्वाण (मोक्ष) पदकी प्राप्तिका साक्षात् अधिकार उसी भवसे पुरुषको ही है, स्त्रीको नहीं । यह भाव ७४ वें श्लोकसे ध्वनित किया गया है ॥ ७३ ॥ Jain Education International अन्वय : अधुना मिथुनं दिन-रात्रिवत् सुखतः अन्योन्यसमीक्षया परितः परितर्पितानलं तं कनकाद्रीन्द्र इव उल्लसन्तं जगाम इति वदामः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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