Book Title: Jayodaya Mahakavya Purvardha
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 666
________________ ५८-५९ ] त्रयोदशः सर्गः ६४३ परिणामेन वर्णेन या निर्मला स्वच्छ अथ च सरला पङ्क्तिबद्धा कलहंसानां वर्तकानां राजहंसानां वा ततिः परम्परा, सुमेखलेव शोभनकाञ्चीव रराज शुशुभे । उपमा ॥ ५७ ॥ स्फुटहंसजनेन सेविता विरजा नीरजमेनयान्विता । सरिता परितापनाशिनी जिनवाणीव तरङ्गवासिनी || ५८ || स्फुटेत्यादि । सा सरिता जिनवाणीवाभूत् किल यतस्तरङ्गानां कल्लोलानां वासिनी निलयभूता पक्षे तरङ्गानां मनोविचाराणां वासिनी परिशोधकारिणी तथा परितापस्य शारीरिकस्य मानसिकस्य च सन्तापस्य नाशिनी तथा नीरजानां कमलानां सेनया समूहेनान्विता पक्षे नीरजसे रजसा पापेन रहिताय नयान्विता नीतियुक्ता तथा विगतं विनष्टं रजो मलं शारीरं मानसं च यत्र सा विरजा अतएव स्फुटेन प्रकटरूपेण हंसजनेन हंसानां पक्षिणां, पक्षे धार्मिकपरमहंसाना जनेन समूहेन सेविता बभौ । श्लिष्टोपमालङ्कृतिः ॥५८॥ अभिरामतया सलक्ष्मणा सरितासीज्जनकात्मजेव या । सहसा सलवाङ्कुशाशया दघती कञ्जगति स्थिराशयम् ||५९|| अभीत्यादि । या सरिता जनकात्मजा इव सीतेवासीत् किल । यतोऽभिरामतया मनोहरतया, सलक्ष्मणा, लक्ष्मणा नाम सारस्यस्ताभिः सहिता, पक्षे श्रीरामेण लक्ष्मणेन बड़ी कोमल थी और स्वच्छ (सफेद) थी, अतः वह ऐसी प्रतीत हो रही है कि मानों गंगारूपी नायिकाकी सरल करधनी ही हो ॥ ५७ ॥ अन्वय : स्फुटहंसजनेन सेविता विरजा नीरजसे नयान्विता परितापनाशिनी तरङ्गवासिनी सरिता जिनवाणी इव आसीत् । अर्थ : वह गंगा नदी जिनवाणीका अनुकरण कर रही थी क्योंकि जिनवाणी सज्जनोंसे सेवित होती है और यह नदी हंसोंसे सेवित है । गंगा विरजा (निर्मल) है और जिनवाणी कर्मरजको नष्ट करनेवाली है। गंगा कमलोंके समूहसे युक्त है और जिनवाणी पाप-रहित मनुष्यके लिए नयकी प्ररूपणा करती है। नदी और जिनवाणी दोनों ही सन्तापका नाश करनेवाली हैं । तथा नदी और जिनवाणी दोनों ही तरंग वासिनी हैं, अर्थात् गंगामें जलकी तरंगें हैं और जिनवाणीमें सप्तभंगीरूपी तरंगे हैं इस प्रकार वह गंगा नदी जयकुमारको जिनवाणी-सी प्रतीत हुई ।। ५८ ।। अन्वय : कञ्जगतिस्थिराशयं दधती अभिरामतया सलक्ष्मणा सहसा सलवाङ्कुशाशया या सरिता जनकात्मजा इव आसीत् । अर्थ : जयकुमारको वह गंगा नदी सीताके समान प्रतीत हुई, क्योंकि वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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