Book Title: Jayodaya Mahakavya Purvardha
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 658
________________ ३६-३८1 त्रयोदशः सर्गः ६३५ दधता सुसृणि त्वरावता शिर ऊर्ध्वायतदन्तमण्डलम् । चलितोऽन्यगजं प्रतीभराड् बहु धुन्वन् कथमप्यरोघि सः ॥३६।। वधतेति । ऊर्ध्वायतदन्तमण्डलमुच्चलम्बमानरदचक्रं स्वशिरो बहु धुन्वन् सन्नन्यगजं प्रति चलित इभराट् मुख्यहस्ती सुसृणि प्रशस्तांकुशं वधता स्वीकुर्वता तथा स्वरावता शीघ्रकारिणा हस्तिपकेन कथमपि बहु परिश्रमेणारोधि निवारितः ॥ ३६ ॥ गगनाङ्गणमाशु चञ्चलैर्ध्वजिनी सम्प्रति केतनाञ्चलैः । सरजो विरजोभिवन्दितुं सहसा सा स्म विस्मष्टि नन्दितु ॥३७॥ ___ गगनेत्यादि । ध्वजिनी सेना, सरजो धूलिधूसरितं गगनाङ्गणं रजसा रहितमाश्वभिवन्वितुमवलोकपितुमेवं स्वयं नन्दितुं प्रसादमाप्तु सहसा सम्प्रति चञ्चलैः केतनानामश्चलः विमाष्टि स्म । उत्प्रेक्षालकृतिः ॥ ३७॥ । जयनं नयनं प्रसार्यतां स्खलतीतः पतदङ्गनाकुलम् । यदुदीक्ष्य जवेन सौविदो भवति स्तम्भयितु स्म विक्लवः ॥३८॥ अर्थ : उस सेना-दलमें रथोंकी आवाजके साथ-साथ हाथियोंके चिंघाड़ भी यद्यपि बड़े जोरसे हो रही थी, फिर भी घोड़ोंकी हिनहिनाहट तो बहुत ही जोरदार थी जो कि अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बतला रही थी॥ ३५ ॥ अन्वय : ऊद्ध वयितदन्तमण्डलं शिरः बहु धुन्वन् अन्य गजं प्रति चलितः इभराट्, सुसृणिं दधता त्वरावता सः कथमप्यरोधि । अर्थ जिसने ऊपरकी ओर दन्त-मण्डल वाले अपने शिरको ऊँचा उठाया है और जो दूसरे हाथोके सम्मुख जानेके लिए शिरको बार-बार हिला रहा है, ऐसा गजराज तीक्ष्ण अंकुश धारण करनेवाले महावतके द्वारा बड़ी कठिनाईसे रोका गया ॥ ३६ ॥ अन्वय : सम्प्रति सरजः गगनाङ्गणम् विरजः अभिवन्दितु सा ध्वजिनी आशु चञ्चलैः केतनाञ्चलैः नन्दितु सहसा विमाष्टि स्म । ___अर्थ : घोड़ोंकी टापोंकी धूलिसे धूसरित आकाशको निर्मल बनाने और प्रसन्न करनेके लिए सेना अपने हिलते हुए ध्वजाके वस्त्रों द्वारा बार-बार साफ करती जा रही थी ।। ३७ ।। अन्वय : नयनं प्रसारयतां इतः पतदङ्गनाकुलं जयनं स्खलति तत् उदीक्ष्य सौविदः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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