Book Title: Jayodaya Mahakavya Purvardha
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 607
________________ ५८४ जयोदय-महाकाव्यम् [६४-६५ उभयोरिति । मे उभयोर्वधू-वरयोः शुभयोगकृत् प्रशस्तोऽसौ प्रबन्ध इत्येवं कृत्वा, अञ्चलवान्तभागस्य वस्त्रप्रान्तस्य बन्धो ग्रन्थिबन्धनाख्यो यः स एव परं केवलं नाभूत्, किन्तु हे बन्धो भ्रातः श्रिया मनसो शकटयोरपि तयोर्मनसो हृदययोश्चेषोऽनुबन्धः सम्बन्धः समभूत् ॥ ६३ ॥ परघातकरः करोऽस्य चास्या नलिनश्रीहर एवमेतदास्याः । द्वयमप्यतिकर्कशैः किलेतः किमु कार्पासकुशैः स्म वध्यतेऽतः ॥६४॥ परघातकर इति । अस्य वरस्य करः परेषां शत्रूणां घातकरः संहारकारकोऽस्याश्च वध्वा करो नलिनस्य कमलस्य श्रीहरः शोभापहारक इत्येव तयोयोरास्या स्थितिरितः किल, अतएव तवयमप्यतिकर्कशैः कार्पासकुशेर्बध्यते स्म किमु साम्प्रतम् ? काव्यलिङ्गोत्प्रेक्षयोः सङ्करः ॥ ६४ ।। स्वकुले सति नाकुलेक्षणेन सुखतः सम्मुखतत्त्वशिक्षणेन । अनयोस्त्रपमाणयोः पयोपि स्मरजं शान्तिकवारिभिर्व्यलोपि ॥६५। स्वकुल इति । आकुलो न भवतीत्यनाकुलस्तस्मिन् व्याकुलतारहिते स्वकुले वन्धुवर्गे सति विद्यमाने तत्र सम्मुखतत्त्वस्य शिक्षणेन क्षणेन पमाणयोलज्जमानयोरनयोर्वधूवरयोः स्मरजं प्रेम-वासनाजनितमपि पयो जलं तदेतत्तावच्छान्तिकवारिभिः श्रुतिविहित अर्थ : हे पाठको, सुलोचना और जयकुमारका यह जो पाणिग्रहण हुआ, वह जहाँ सबके लिये मंगल कारक हुआ, वहाँ उन दोनों का आपसमें वस्त्रका गठबन्धन भी दृढ़ किया गया। इतना ही नहीं, किन्तु सौभाग्य के भंडार रूप उन दोनों के हृदयोंका भी परस्पर गठबन्धन हो गया ।। ६३ ।। अन्वय : अस्य करः परघातकरः, अस्याः च नलिनश्रीहरः, एवम् एतदास्या अतः किल इतः किमु द्वयम् अपि अति कर्कशैः कार्पासकुशैः वध्यते स्म । ___अर्थ : इस जयकुमारका हाथ तो परका अर्थात् वैरियोंका घात करनेवाला है और सुलोचनाका हाथ कमलकी लक्ष्मोका हरण करनेवाला है, इस प्रकार ये दोनों ही अपराधी है इस अभिप्रायको लेकरके ही मानों उस समय उन दोनों के हाथोंको कठोर कपास और कुशके सूतोंसे बाँध दिया गया । अर्थात् कंकणबन्धनका दस्तूर किया गया ।। ६४ ॥ __ अन्वय : स्वकुले सति चाकुलेक्षणेन सुखतः सम्मुखतत्त्वशिक्षणेन अपमाणयोः अनयोः स्मरजं पयोपि शान्तिकवारिभिः व्यलोपि । अर्थ : प्रत्यक्षमें कुटम्बी जनोंका सान्निध्य होते हुए और उनके स्पष्ट देखते हुए लज्जित होने वाले उन वर-वधु दोनोंका प्रेमवासना-जनित प्रस्वेदरूप जल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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