Book Title: Jayodaya Mahakavya Purvardha
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 590
________________ २१-२३ ] द्वादशः सर्गः ५६७ अहहाग्रहहावभावधात्री मम च प्रेमनिबन्धनकपात्री । भवतां भुवि लब्धशुद्धजन्मा वर आहेति समेतु माम तन्माम् ॥२१॥ अहति । अहह, मामेयं सुन्दरी, आग्रहश्च हावश्च भावश्च तेषां धात्री जन्मभूमिर्मम च पुनः प्रेमनिबन्धनस्यैका प्रधानभूता पात्री भवतां भुवि त्वदीयवंशे लब्धं शुद्ध जन्म यया साऽऽसौ तत्तस्मात्कारणात्, मां समेतु सङ्गच्छताम्, तावदित्येवं वाचमाह वरो जयकुमारः ॥ २१ ॥ इयमभ्यधिका ममास्त्यसुभ्यस्तुलनीयापि न साम्प्रतं वसुभ्यः । . भवते नवतेजसे प्रसाद इति वाक्यं खलु सुप्रभा जगाद ॥ २२ ॥ __ इयमिति । इयं ममाङ्गजाऽसुभ्यः प्राणेभ्योऽप्यधिका, अतएव साम्प्रतं वसुभ्यो रत्नेभ्यो हीरकादिभ्योऽपि किं पुनरन्येभ्यो न तुलनीया, रत्नेभ्योऽप्यधिकमूल्यशालिनीयमित्याशय. । भवते नवतेजसे नूतनप्रभाववते प्रसादोऽस्ति, तुभ्यं प्रसादरूपेण वितीर्णेयमिति वाक्यं सुप्रभा सुलोचनामातापि जगाद ॥ २२ ॥ सुरभिर्नुरभीष्टदर्शना मे मनसीयं सुमनस्यथास्त्ववामे । परितश्चरितं मयैतदर्थ मम सर्वस्वमिहैतया समर्थम् ॥ २३ ॥ विचारोंके अनुसार है अतः हे श्वसुर महोदय ! यह मेरे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय है अतएव इस सुन्दर अवसरमें यह मेरी मनभावती बने अर्थात् मैं आपके कथनको स्वीकार करता हूँ ॥ २० ॥ अन्वय : अहह माम ! आग्रह हाव-भावधात्री मम च प्रेमनिबन्धनकपात्री भवतां भुवि लब्धशुद्धजन्मा इयं तत् तस्मात् माम् समेतु इति वर आह । ___ अहह !!! यह सुलोचना हावभावको धारण करनेवाली है और प्रेम-सम्बन्ध की एक मात्र पात्र है क्योंकि इसने आपके उत्तम कुलमें जन्म लिया है अतएव हे माम ! यह मुझे प्राप्त हो अर्थात् यह मेरी अर्धांगिनी बने। इस प्रकार वर राज जयकुमारने कहा ॥ २१ ॥ अन्वय : इयं मम असुभ्यः अधिका अस्ति साम्प्रतं वसुभ्योऽपि तुलनीया नास्ति सा भवते नवतेजसे प्रसाद इति वाक्यं खलु सुप्रभाजगाद । अर्थ : हे वरराज ! यह सुलोचना मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्यारी है, जिसकी तुलना रत्नोंसे भी नहीं की जा सकती है ऐसी यह सुलोचना नवीन तेजके धारक आपके लिए भी प्रसाद रूपमें है अर्थात् आपको दी जा रही है इस प्रकार सुलोचनाकी माता सुप्रभाने अपने पतिकी बातका समर्थन किया ॥२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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