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जैन एवं बौद्ध धर्म में भिक्षुणी-संघ की स्थापना : ३१ प्राप्त की जा सकती थी। पर ऐसा कोई उदाहरण जैन भिक्षुणी-संघ के सन्दर्भ में नहीं प्राप्त होता ।
दीक्षा-विधि में भी अन्तर था। बौद्ध भिक्षुणी-संघ में उपसम्पदा प्राप्त करने के लिए शिक्षमाणा को लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। भिक्षु तथा भिक्षुणी-दोनों संघों की सहमति अनिवार्य थी। सर्वप्रथम भिक्षुणी-संघ में तत्पश्चात् भिक्षु-संघ में उपसम्पदा प्राप्त करने के लिए ज्ञप्ति तथा तीन बार वाचना (अनुश्रावण) की जाती थी तथा अन्त में धारणा के द्वारा संघ की मौन सहमति से उसकी स्वीकृति की सूचना मिलती थी । जैन भिक्षुणी-संघ में इतनी लम्बी प्रक्रिया नहीं थी। क्षुल्लिका के रूप में सामायिक चारित्र ग्रहण करने के पश्चात् भिक्षुणी आचारनियमों की पूर्ण जानकारी प्राप्त करती थी। तदुपरान्त वह प्रवर्तिनी से बड़ी दीक्षा ग्रहण करती थी। इसे जैन परम्परा में छेदोस्थापनीय चारित्र या महाव्रतारोहण कहा जाता था।
बौद्ध भिक्षणी-संघ में उपसम्पदा प्रदान करने के पश्चात् भिक्षुणी को तीन निश्रय तथा आठ अकरणीय कर्म बतलाए जाते थे। जैन भिक्षुणियों के सन्दर्भ में इस प्रकार के निश्रय तथा अकरणीय कर्मों का कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता । यद्यपि इनका पालन जैन भिक्षुणी-संघ में भी होता था।
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