Book Title: Jain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Author(s): Arun Pratap Sinh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 241
________________ २२२ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी - संघ होते हैं जो आगमों एवं पिटकों में निष्णात थीं । भद्राकुण्डलकेशा जिसने पहले जैन भिक्षुणी संघ में तत्पश्चात् बौद्ध भिक्षुणी संघ में प्रवेश लिया, तर्कशास्त्र की प्रवीण पण्डिता थी । धर्मोपदेश करना तथा दुःखी एवं संतप्त जनों को सान्त्वना एवं प्रसन्नता प्रदान करना भिक्षुणियों के जीवन का मुख्य लक्ष्य था । उपलब्ध सुख-सुविधाओं को त्याग कर विपरीत परिस्थितियों में अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए वे दूर-दूर के देशों में गई और उन प्रदेशों के निवासियों को उन्हीं की सरल तथा सुबोध भाषा में धर्मोपदेश दिया । बौद्ध भिक्षुणी संघमित्रा राजकन्या होते हुए भी सुविधाओं को त्यागकर सिंहल गई और वहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार कर बौद्ध धर्म की नींव को मजबूत बनाया। इस प्रकार स्पष्ट है कि भिक्षुणी - संघ का सर्वाधिक महत्त्व इस तथ्य में निहित था कि इसने नारियों को ऐसा अनुकूल वातावरण प्रदान किया जिसमें वे अपने ज्ञान एवं बुद्धि का उपयोग कर सकती थीं, साथ ही तप साधना में लगी रह सकती थीं । निस्सन्देह, भिक्षुणी संघ के अभाव में इन विदुषी भिक्षुणियों को अपनी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर नहीं मिलता । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भिक्षुणी संघ को उपयोगिता कई दृष्टि• कोणों से महत्त्वपूर्ण थी । यह एक विशिष्ट प्रकार का आश्रयस्थल तथा नारीसुधार गृह था जहाँ नारियों को अपने ज्ञान एवं बुद्धि के चतुर्दिक विकास का सुनहरा अवसर उपलब्ध था । निस्सन्देह, जैन एवं बौद्ध भिक्षुणी-संघ की स्थापना एक ऐतिहासिक आवश्यकता थी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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