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भिक्षुणी-संघ का विकास एवं ह्रास : २०३ कुछ भवनों का निर्माण निर्ग्रन्थ साधुओं के लिए किया था। यह राजा अशोक के बहुत पूर्व हुआ था। इतने प्राचीन काल में श्रीलंका में जैन धर्म का प्रचार यह द्योतित करता है कि उस समय तक अवश्य ही जैन धर्म दक्षिण भारत में पहुँच चुका था । सम्भवतया श्रीलंका में जैन धर्म का प्रसार दक्षिण भारत होता हआ ही गया होगा। परन्तु दक्षिण भारत में कोई पुराना आभिलेखिक साक्ष्य नहीं प्राप्त होता। सबसे प्रथम श्रवणबेलगोल के शिलालेख प्राप्त होते हैं, जो ६०० ईस्वी के पूर्व के नहीं हैं । बादामी के चालुक्यों के समय दक्षिण भारत में जैन धर्म का व्यापक प्रसार हुआ। इसकी पुष्टि कोल्हापुर से प्राप्त ताम्रपत्रों तथा ऐहोल, धारवाण आदि से प्राप्त शिलालेखों से होती है, जिनमें जैन मन्दिरों के निर्माण तथा उनकी समुचित व्यवस्था के लिए भूमि-दान के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार जैन धर्म का प्रसार पूर्व से पश्चिम की ओर फैलता हुआ 'दिखायी पड़ता है, परन्तु अपने इस विस्तार में वह एकीकृत धर्म नहीं रह गया था, अपितु कई गणों, गच्छों में विभाजित हो गया था। मथुरा से प्राप्त जैन अभिलेखों में भिक्षु-भिक्षुणियों के विभिन्न गणों एवं कुलों का उल्लेख है-यथा
१. आर्या जीवा वारणगण, आर्यहात्तकीय कुल, वार्जनागरी शाखा की थी।
२. आर्या क्षुद्रा कोट्टिय गण, ब्रह्मदासिक कुल, उच्छै गरी शाखा की थी।
३. आर्या वसुला मैधिक कुल की थी।" ___४. आर्या अक्का वारण गण, आर्य हात्तकीय कुल, वार्जनागरी शाखा, श्रीक सम्भोग की थी।
१. महावसं, १०/९७-१००. 2. Rastrakuta And Their Times, P. 272-74. 3. List of Brahmi Inscriptions, 67, 99. 4. Ibid, 18. -5. Ibid, 70. 6. Ibid, 48.
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