Book Title: Jain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Author(s): Arun Pratap Sinh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 229
________________ २१० : जैन और बौद्ध भिक्षुमी संघ अग्रणी थीं और सम्भवतः अध्यापन भी कर सकती थीं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सम्पूर्ण उत्तरी भारत के किसो भी अभिलेख में किसी भिक्षुणी को "उपाध्यायिनी" नहीं कहा गया है, जबकि कुछ भिक्षुणियों को "पिटिका"१ तथा कुछ को "सूतातिकिनी'२ कहा गया है अर्थात् वे तीनों पिटकों तथा सूत्रों में पारंगत थीं। अमरावती से ही प्राप्त एक अभिलेख में एक भिक्षुणी बुद्धरक्षिता को "नवकम्मक" कहा गया है जो विहारों आदि के निर्माण का कार्य करती थी अथवा उनके निर्माण में सहयोग प्रदान करती थी। ___सम्भवतः अमरावती में बौद्ध भिक्षुणियाँ अधिक लोकप्रिय थीं। दान देने के सन्दर्भ में आश्चर्यजनक रूप से भिक्षुणियों की संख्या भिक्षुओं से कहीं ज्यादा है। यहाँ एक भिक्षु-भिक्षुणी के साथ-साथ दान देने का उल्लेख है जो संघ में प्रवेश लेने के पहले भाई-बहन थे। दक्षिण भारत में नागार्जुनीकोण्डा भी बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध स्थल था। अमरावती एवं नागार्जुनीकोण्डा दोनों नगर कृष्णा नदी के तट पर बसे हुए थे और इनके बीच की दूरी १०० कि० मी० से अधिक नहीं थी। पर यह आश्चर्यजनक सा प्रतीत होता है कि वहाँ से प्राप्त किसी भी अभिलेख में किसी भिक्षुणी का उल्लेख नहीं मिलता है जबकि इच्छ्वाकु नरेश की रानियों तथा अन्य उपासिकाओं द्वारा दिए गए दानों का उल्लेख है। इस प्रकार स्पष्ट है कि द्वितीय-प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व तक सम्पूर्ण भारत में बौद्ध धर्म एवं उसके साथ ही भिक्षुणी-संघ का प्रसार हो चुका था । अभिलेखों एवं ग्रंथों से देखा जाये तो तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर तृतीय शताब्दी ईस्वी तक का काल बौद्ध भिक्षुणीसंघ का स्वर्ण काल था। निश्चय ही बौद्ध भिक्षणी-संघ अपनी स्थापना के प्रारम्भिक दिनों में तथा बाद के कुछ समय तक अपने सैद्धान्तिक तथा नैतिक नियमों की श्रेष्ठता के कारण महती विकास को प्राप्त हुआ। परन्तु इसके पश्चात् भिक्षुणी-संघ का धीरे-धीरे ह्रास होना प्रारम्भ हुआ। तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ईस्वी के पश्चात् साहित्यिक एवं आभिलेखिक साक्ष्यों में भिक्षुणियों तथा उनसे सम्बन्धित उल्लेखों में कमी होनी 1. List of Brahmi Inscriptions, 319. 2. Ibid, 38. 3. Ibid, 1250. 4. Ibid, 1223. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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