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१८६ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ को भिक्ष से बोलना आवश्यक हो, तो उसे यह निर्देश दिया गया था कि वह अपनी मुख्य भिक्षुणी (स्थविरा) को आगे करके थोड़े शब्दों में विनयपूर्वक बोले या प्रश्न पूछे ।' वार्तालाप का विषय धार्मिक जिज्ञासा को शान्त करना होता था। व्यर्थ का वार्तालाप वह नहीं कर सकती थी।
इसी प्रकार कुछ विशेष परिस्थितियों में भिक्षु भिक्षुणी का स्पर्श एवं उसकी सहायता कर सकता था जो निम्न हैं:
(क)भिक्षुणी को यदि कोई उन्मत्त पशु या पक्षी मारता हो;
(ख) भिक्षुणी कीचड़ में फंस गई हो और उसमें से निकल न पा रही हो;
(ग) विषम मार्ग में जाने पर यदि भिक्षुणी गिर पड़ी हो;
(ध) भिक्षुणी नाव पर चढ़ने या उतरने में कठिनाई का अनुभव कर रही हो;
(ङ) यदि भिक्षुणो विक्षिप्त चित्त, क्रुद्ध, उन्मत्त, कलह में रत, यक्षाविष्ट हो अथवा पति या दुराचारी व्यक्तियों द्वारा संयम से च्युत की जा रही हो।
उपर्युक्त परिस्थितियों में भिक्षु को भिक्षुणी का स्पर्श करने की अनुमति दी गई थी। इसी प्रकार यदि भिक्षणी ने कठोर प्रायश्चित्त किया हो, भक्तपान प्रत्याखान (भोजन-पानी का परित्याग करके संथारा ग्रहण) किया हो; अर्थजात से पीड़ित हो, तो भिक्षु भिक्षुणी की सहायता कर सकता था ।३ ऐसा करना संघ की मर्यादा का उल्लंघन नहीं माना जाता था।
संघ के नियमों के अनुसार बीमारी की अवस्था में भी भिक्षु साध्वी द्वारा लायी हुई औषधि को नहीं ग्रहण कर सकता था-परन्तु कुछ परिस्थितियों में इसमें भी छूट दी गयी थी। भिक्षु के पैर में यदि काँटा या तेज लकड़ी धंस जाय, आँख में सूक्ष्म जीव-जन्तु या धूल पड़ जाय और उसे कोई भिक्षु निकाल न सके तो ऐसी स्थिति में किसी चतुर भिक्षुणी द्वारा काँटा निकालना मर्यादा का अतिक्रमण करना नहीं था। ठीक इसी प्रकार यदि कोई भिक्षुणी उक्त बाधाओं से पीड़ित हो और कोई भिक्षुणी २. गच्छाचार, १३०. ३. स्थानांग, ५/४३७.; ६/४७६. ४. बृहत्कल्पसूत्र, ६/७-१८.
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