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१८४ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ
चुका हो, कोई भी भिक्षुणी एकान्त में अकेले न तो मिल सकती थी और न वार्तालाप ही कर सकती थी ।
साधु के लिए साध्वियों के शरीर का स्पर्श किसी भी दशा में निन्दनीय था । आचार्य के लिए भी साध्वी के हाथ का स्पर्श वर्जित था, क्योंकि यह उन्हें कलंकित कर सकता था । स्त्री के अंगों को सराग दृष्टि से देखना भी वर्जित था । यह माना गया था कि वृद्धावस्था को प्राप्त तथा सदा तप में लीन साधु को भी साध्वी का सम्पर्क निन्दा का पात्र बना सकता है |
सम्पर्क के अवसर
इन सारे निषेधों के बावजूद भी भिक्षु भिक्षुणी का आपस में मिलना सर्वथा निषिद्ध नहीं था । जैन ग्रन्थों में एक दूसरे से मिलने सम्वन्धी मर्यादाएँ भी निश्चित की गई हैं। यद्यपि भिक्षु भिक्षुणियों को एक साथ एक ही उपाश्रय में रहना सर्वथा निषिद्ध था, किन्तु निम्न विशेष परिस्थितियों में उन्हें एक साथ रहने की अनुमति प्रदान की गई थी ।
(क) यात्रा के समय यदि भिक्षु भिक्षुणी चलते-चलते अगम्य एवं निर्जन अटवी में पहुँच गये हों ।
(ख) भिक्षु - भिक्षुणियों को किसी ग्राम या नगर में एक ही उपाश्रय मिला हो ।
में
(ग) यदि उन्हें उपाश्रय न मिला हो और किसी एक ही देवालय आदि ठहरना अनिवार्य हो गया हो ।
(घ) चोरों या दुष्ट व्यक्तियों द्वारा वस्त्र पात्र आदि के छीनने या चुराने की सम्भावना हो ।
(ङ) दुराचारी व्यक्ति यदि साध्वी के साथ बलात्कार करना चाहते हों ।
१. गच्छाचार, १०९.
२. वही, ८५.
३, वही, ६२.
४. वही, ६४-६५. ५. स्थानांग, ५/४१७.
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