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१८२ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ विषय वासनाओं के पंक में फंसा लेती हैं। उनके सम्बन्ध में यह भी कहा गया है कि वे पुरुष को प्रलोभन में फंसाकर खरीदे हए दास की भाँति नचाने वाली हैं। सूत्रकृतांग में स्त्रियों को पुरुष का ब्रह्मचर्य नष्ट करने वाला कहा गया है। गच्छाचार में स्त्री का स्पर्श विषधर सर्प, प्रज्वलित अग्नि तथा हलाहल विष के समान माना गया है।
साधु के लिए इस संसार में साध्वी के अतिरिक्त और कोई बन्धन नहीं है। जिस प्रकार श्लेष्म में पड़ी हुयी मक्षिका अपने आप को नहीं छुड़ा सकती, उसी प्रकार स्त्री के बन्धन में फंसा हुआ साधु संसार-सागर से पार नहीं पा सकता। वे भिक्षुओं के ब्रह्मचर्य को स्खलित करने का साधन मानी गयीं।
यद्यपि नारी जाति की निन्दा भिक्षुओं के ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखने के सन्दर्भ में की गयी थी, परन्तु इससे भिक्षुणियों की सामाजिक स्थिति पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था ।
जैन ग्रन्थों में भिक्षु-भिक्षुणियों को एक साथ ठहरने का निषेध किया गया था। उनका उपाश्रय-स्थल भी एक दूसरे के समीप नहीं हो सकता था क्योंकि उपाश्रय समीप रहने से उनमें पारस्परिक रागभाव होने की सम्भावना थी । ऐसे उपाश्रयों में जिनके द्वार एक दूसरे के आमने-सामने हों, एक उपाश्रय के द्वार के पार्श्वभाग में दूसरे उपाश्रय का द्वार हो, एक उपाश्रय का द्वार ऊपर हो और दूसरे का नीचे अथवा उपाश्रय समपंक्ति में हों, तो ऐसे उपाश्रयों में भिक्षु-भिक्षुणियों को साथ-साथ रहने का निषेध किया गया था क्योंकि ऐसे उपाश्रय में रहने से जनसाधारण के मन में अनेक शंकाएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
१. "पंकभूया उ इत्थियो"-उत्तराध्ययन, २/१७. २. वही, ८/१८. ३. सूत्रकृतांग, १/४/१/२६. ४. गच्छाचार, ८४. ५. वही, ७०. ६. वही, ६७. ७. बृहत्कल्पसूत्र, १/१०-११. ८. बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, २२३५-५६.
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