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यात्रा एवं आवास सम्बन्धी नियम : ७७
का प्रयोग करता था, तो उसे दुक्कट-दण्ड का प्रायश्चित्त करना पड़ता था। वह भिक्षु जो भिक्षुणी को ओवाद-थापन का दण्ड देता था, बिना निर्णय दिये कहीं बाहर नहीं जा सकता था—अन्यथा वह भी दुक्कट के दण्ड का भागी होता था ।२ उपदेश का अनुपयुक्त समय :
कुछ विशेष परिस्थितियों में उपदेश देने या सुनने का निषेध किया गया था। जैसे-(१) अकाले (सूर्यास्त के बाद), (२) अदेशे (अनुपयुक्त स्थान पर जैसे द्यूतशाला, पानागारशाला, वधनागारशाला के समीप, जहाँ बहुत शोर हो रहा हो, (३) अनागत काल (प्रतिपदा तथा द्वितीया को), (४) अति-क्रान्तिकाल (चतुर्दशी तथा पूर्णिमा को), (५) यदि कम भिक्षुणियाँ हों (न छन्दसो), (६) व्यग्रता में हो (न व्यग्रसो), (७) परिषद
की बैठक का समय हो (न पार्षदो), (८) उपदेश अधिक विस्तार से हो (न दीर्घो वादेन) (९) उपदेशक कामी हो (आगन्तुकामस्य)।"
बौद्ध भिक्षुणियों के प्रवारणा सम्बन्धी नियम :
वर्षावसान के पश्चात् प्रत्येक भिक्षुणी को प्रवारणा करनी पड़ती थी अर्थात् भिक्षुणी को दोनों संघों के समक्ष वर्षाकाल में हुए दृष्ट, श्रुत तथा परिशंकित अपराधों की आलोचना करनी पड़ती थी। यदि वे दोषो पायी जाती थीं तो संघ द्वारा दिये गये दण्ड को उन्हें स्वीकार करना पड़ता था। इसके पश्चात् ही वे शुद्ध होती थीं। प्रवारणा न करने पर उन्हें प्रायश्चित्त का दण्ड दिया जाता था। भिक्षुणियों को पहले भिक्षुणी-संघ में प्रवारणा करके तदनन्तर भिक्षु-संघ में प्रवारणा करने का विधान था।
जिन प्रमुख कारणों से भिक्षुणियों को वर्षाकाल में भिक्षुओं के साथ रहना अनिवार्य था, उनमें प्रवारणा का नियम भी एक कारण था ।
१. चुल्लवग, पृ० ३८३. २. वही, पृ० ३८३. ३. भिक्षुणी विनय, $९९-१००.. ४. पातिमोक्व, भिक्खु पाचित्तिय, २२. ५, वही, २४. ६. वही, भिक्खुनी पाचित्तिय, ५७.
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