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भिक्षुणियों के शील सम्बन्धी नियम : ११३
दूसरे, संघ में युवती एवं सुन्दर स्त्रियाँ भी भिक्षुणियों के रूप में प्रवेश लेती थीं। संघ के अन्दर छिपे हुए दुष्ट व्यक्ति एवं संघ के बाहर स्वच्छन्द घूमते हुए समाज के मनचले युवक उनको परेशान करने का कोई भी अवसर नहीं चूकते थे । ऐसे व्यक्तियों की निष्ठा सन्देहजनक थी। वे एकान्त स्थान पाते ही तरह-तरह की बातें करने लगते थे, जिनका संयम एवं आचार से दूर का भी कोई रिस्ता नहीं होता था ।' उनकी बातों का विषय गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित होता था । कुछ स्त्रियाँ अपने पति को दूसरी स्त्री में अनुरक्त देखकर, कोई पति का प्रेम न पाने से, कोई पति की मृत्यु के पश्चात् संघ में दीक्षा लेती थीं, उनका वैराग्य विवेकजन्य एवं आन्तरिक नहीं होता था । ये क्षीण मनवाली साध्वियाँ हो संघ के पवित्र मार्ग में कंटकवत् थीं । तनिक अवसर पाते ही इनकी काम-वासना जागृत हो जाती थी । अतः जैन आचार्यों का सबसे प्रमुख कर्तव्य यह था कि वे उन्हें पुरुषों के सम्पर्क में आने का अवसर ही न दें । इसीलिए संघ में नपुंसकों की दीक्षा का सर्वथा निषेध किया गया था । नपुंसकों के प्रकार तथा संघ में उनके द्वारा किये गये कुकृत्यों का विस्तृत वर्णन बृहत्कल्पभाष्य एवं निशीथ चूर्णि में मिलता है । इन ग्रन्थों के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैनाचार्य नपुंसकों के लक्षणों का पूरा ज्ञान रखते थे । आचार्य संघ- प्रवेश के समय दीक्षार्थी से अनेक प्रकार के प्रश्न करते थे, उसकी कितनी सूक्ष्म छान-बीन की जाती थी. जिसे देखकर आज भी आश्चर्य होता है । नपुंसकों से इतना डर संघ को इसलिए था कि वे ऐसी अग्नि के समान माने गये थे, जो प्रज्वलित भी जल्दी होती है और रहती भी देर तक है ।" (नपुंसक वेदो महानगरदाहसमाना) । उनमें उभय-वासना की प्रवृत्ति होती है । वे स्त्री-पुरुष दोनों की काम-वासना का आनन्द लेते हैं । इस कारण वे स्त्री-पुरुष दोनों की कामवासनाको प्रदीप्त करने वाले होते हैं । इनके कारण समलैंगिकता को भी प्रोत्साहन मिलता है, जिससे भिक्षु भिक्षुणियों का चारित्रिक पतन होता है | अतः यह भरसक प्रयत्न किया गया था कि ऐसे व्यक्ति संघ में किसी प्रकार प्रवेश न पा सकें। यह अत्यन्त कठिन समस्या थी, जिसका निरा
१. निशीथ विशेष चूर्णि, १६८३ ९५; १७८८-९६.
२. बृहत्कल्पसूत्र, ४/४.
३. बृहत्कल्पभाष्य, भाग पंचम, ५१३९-६४.
४. निशीथ विशेष चूर्णि, ३५६१-३६२४
५. बहत्कल्पभाष्य, भाग पंचम, ५१४८- टोका.
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