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भिक्षुणियों के शील सम्बन्धी नियम : १११ परिस्थिति में उन्हें सलाह दी गयी थी कि वे चर्मखण्ड, शाक के पत्ते, दर्भ तथा अपने हाथ द्वारा अपने गुप्तांगों की रक्षा करें।' इतनी सावधानी रखने पर भी दुराचारियों द्वारा भिक्षुणियों के साथ बलात्कार की घटनाएँ घट ही जाती थीं । इस अवस्था में जब भिक्षुणी का स्वयं का अपना कोई दोष नहीं हो, जैन संघ अत्यन्त उदार था । सच्ची मानवता के गुणों से सम्पन्न एवं अपनी मर्यादा की रक्षा करता हुआ जैन संघ उसकी सभी अपेक्षित आवश्यकताओं की पूर्ति करता था । ऐसी भिक्षुणी न तो घृणा की पात्र समझी जाती थी और न उसे संघ से बाहर निकाला जाता था । उसे यह निर्देश दिया गया था कि ऐसी घटना घटने के बाद वह अन्य लोगों के जानने के पहले अपने आचार्य या प्रवर्तिनी से कहे । वे या तो स्वयं उसकी देखभाल करते थे या गर्भ ठहरने की स्थिति में उसे किसी श्रद्धावान शय्यातर के घर ठहरा देते थे । ऐसी भिक्षुणी को निराश्रय छोड़ देने पर आचार्य को भी दण्ड का भागी बनना पड़ता था । उसे भिक्षा के लिए भेजा नहीं जाता था, अपितु दूसरे साधु एवं साध्वी उसके लिए भोजन एवं अन्य आवश्यक वस्तुएँ लाते थे। शिशु के दूध पीने तक वह गृहस्थ के ही घर रहती थी जो उसका माता-पिता के समान पालन-पोषण करता था । बलात्कार किये जाने पर उसकी आलोचना करने का किसी को अधिकार नहीं था । इस दोष के लिए जो उस पर उँगली उठाता था या उसे चिढ़ाता था, वह दण्ड का पात्र माना जाता था । इसके मूल में यह भावना निहित थी कि ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में, जिसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी नहीं है, उसकी आलोचना करने पर वह या तो निर्लज्ज हो जायेगी या लज्जा के कारण संघ छोड़ देगी । दोनों ही स्थितियाँ उसके एवं संघ के हित में नहीं हैं। क्योंकि इससे उसकी एवं संघ की बदनामी होगी । ऐसे प्रसंगों पर जैन संघ अपनी गरिमा की रक्षा करने में पूर्ण - तत्पर रहता था । उपयुक्त आश्रय स्थल न मिलने पर ऐसी भिक्षुणी को भिक्षुणी के वेश में नहीं रखा जाता था, अपितु गृहस्थ का वेश पहनाकर ( गृहिलिङ्ग करोति ) गच्छ के साथ रखा जाता था । उसकी सेवा में तत्पर वृद्ध साधु "श्राद्धवेश धारण करता था अथवा युवक भिक्षु ' सिद्धपुत्रवेश” धारण करता था । इस प्रकार का वेश धारण करने का कारण यह था कि
१. " खंडे पत्ते तह दब्भचीवरे तह य हत्यपिहणं तु अद्धाणविवित्ताणं
आगाढं
सेसणागाढं "
- बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, २९८६.
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