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भिक्षुणियों के शील सम्बन्धी नियम : ११७
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बौद्ध संघ में भिक्षु संघ की स्थापना के कई वर्षों बाद भिक्षुणी संघ की स्थापना हुई थी । इस देरी में भिक्षुणियों की शील सम्बन्धी चिन्ता एक महत्त्वपूर्ण कारण थी । भिक्षुणी संघ की स्थापना के समय बुद्ध का यह कथन - " जो सद्धर्म १००० वर्ष ठहरता, अव ५०० वर्षं ही ठहरेगा" - इस तथ्य का प्रतीक था कि उनको स्त्रियों के प्रवेश के पश्चात् बौद्ध संघ के छिन्न-भिन्न होने का भय था । इसके निराकरण हेतु ही बुद्ध ने भिक्षुणियों के लिए अष्टगुरुधर्मों की स्थापना की थी । यह यावज्जीवन पालनीय धर्म था, जिसका पालन उसी प्रकार करना था, जैसे सागर अपने किनारों की मर्यादा का करता है । स्पष्ट है, बुद्ध भिक्षुणियों को एक मर्यादा के अन्दर रखना चाहते थे । अष्टगुरुधर्म सम्बन्धी नियमों की सार्थकता को बुद्ध ने चार लौकिक उदाहरण देकर सिद्ध किया । उनके कथन का सार यह था कि जिस प्रकार धान के खेत में सेतट्टिका तथा ईख के खेत में मंजिट्टिका रोग लग जाने से तैयार फसल नष्ट हो जाती है; उसी प्रकार नारियों के प्रवेश के बाद बौद्ध संघ नष्ट हो जायेगा । यह रोग कामसम्बन्धी ही हो सकता था, क्योंकि भिन्न-लिंगी भिक्षु और भिक्षुणियों के सम्पर्क से दोनों के सद्धर्म से च्युत होने का खतरा था । अतः जिस प्रकार पानी के प्रवाह को रोकने के लिए मनुष्य मेंड़ बनाता है, उसी प्रकार नारियों के प्रवेश के बाद उससे उत्पन्न बुराइयों को रोकने के लिए बुद्ध अष्टगुरुधर्मों का प्रतिपादन किया ।
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काम सम्बन्धी अपराध करने पर बौद्ध भिक्षुणी के लिए कठोरतम दण्ड की व्यवस्था की गयी थी । बौद्ध संघ में दण्ड व्यवस्था के कठोरतम अपराध पाराजिक एवं संघादिसेस थे । पाराजिक की अपराधिनी भिक्षुणी संघ से सर्वदा के लिए निकाल दी जाती थी । वह अन्य भिक्षुणियों के साथ रहने लायक नहीं रहती थी ( पाराजिका होति असंवासा) । संघादिसेस की अपराधिनी भिक्षुणी को १५ दिन का मानत्त करना पड़ता था । मानत देने का अर्थ था- संघ का विश्वास अर्जित करना ।
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भिक्षु के चार पाराजिक नियम थे, परन्तु भिक्षुणी के लिए आठ पाराजिक नियम थे । भिक्षु के लिए काम सम्बन्धी एक पाराजिक अपराध
१. चुल्लवग्ग, पृ० ३७६-७७.
२. " वेलामिव समुद्रेन " -- भिक्षुणी विनय, $१४.
३. चुल्लवग्ग, पृ० ३७७.
४. द्रष्टव्य -- इसी ग्रन्थ का षष्ठ अध्याय.
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