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६८ : जैन और बौद्ध भिक्षुणो-संघ ... पर रहने का निर्देश दिया गया था, जहाँ आना-जाना सुगम हो तथा शय्यासंस्तारक, भिक्षा आदि मिलने की सुविधा हो ।'
वर्षावास-स्थल पर उसे तब तक ठहरने का निर्देश दिया गया था जब तक कि वर्षावसान के बाद लोगों का आना-जाना शुरू न हो गया हो तथा मार्ग में सूक्ष्म जीव-जन्तुओं तथा हरी वनस्पतियों के कुचलने का भय हो । यदि मार्ग अवरुद्ध हो तो वे उस स्थल पर वर्षावास के चार महीने से भी अधिक समय तक रुक सकती थीं, चाहे हेमन्त ऋतु का भी कुछ काल क्यों न व्यतीत हो गया हो। अहिंसा महाव्रत का पालन करने वाली भिक्षुणियों के लिए ऐसा करना इसलिए आवश्यक था, ताकि किसी भी परिस्थिति में सूक्ष्म जीव-जन्तुओं तथा हरे तृणों की विराधना न हो। दिगम्बर भिक्षुणियों के वर्षावास सम्बन्धी नियम
दिगम्बर सम्प्रदाय की भिक्षुणियों को भी वर्षाकाल में एक स्थान पर चार माह रुकने का विधान किया गया था। मूलाचार की टीका के अनुसार वर्षाऋतु आरम्भ होने के पूर्व एक माह, वर्षा ऋतु के दो माह तथा वर्षावसान के पश्चात् एक माह-इस प्रकार उसे चार माह ठहरने का निर्देश दिया गया था। एक माह पहले ही रुकने का टीकाकार ने यह कारण बतलाया है कि इससे भिक्षु-भिक्षुणियों के बारे में लोगों को सही स्थिति ज्ञात हो जायेगी (लोकस्थितिज्ञापनार्थ) । वर्षा के दो महीने रुकने का कारण अहिंसा महाव्रत का पालन था (अहिंसादिव्रतपरिपालनार्थ)। वर्षावसान के पश्चात् एक माह रुकने का कारण श्रावकों की शंका का समाधान करना था (श्रावक-लोकादिसंक्लेशपरिहरणाय)। __इस प्रकार जैन धर्म के दोनों ही सम्प्रदायों में वर्षावास सम्बन्धी नियम प्रायः समान थे। बौद्ध भिक्षुणियों के वर्षावास सम्बन्धी नियम
बौद्ध भिक्षणियों के भी वर्षावास सम्बन्धी विस्तृत नियम थे। उन्हें वर्षावास अकेले व्यतीत करना निषिद्ध था । भिक्षुणियों को भिक्षुओं के साथ ही वर्षावास करने की अनुमति दी गयी थी। भिक्षुणियों के लिए निर्धारित अष्टगुरुधर्म नियम के अनुसार वर्षाकाल में कोई भी भिक्षुणी भिक्षु-रहित ग्राम या नगर में वर्षावास नहीं कर सकती थी। यह अनतिक्रमणीय नियम १. आचारांग, २/३/१/३. २. वही, २/३/१४. ३. मूलाचार, १०/१८. तथा टोका।
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