Book Title: Jain Vidya 22 23 Author(s): Kamalchand Sogani & Others Publisher: Jain Vidya Samsthan View full book textPage 8
________________ 'दिगम्बर परम्परा में कर्मकाण्ड की महिमा को मुखरित करनेवाले प्राचीन जैन आचार्यों में पं. आशाधर की द्वितीयता नहीं है।' 'पं. आशाधर कर्मकाण्ड में निष्णात विद्वान थे, इस बात का संकेत उनके 'जिनयज्ञकल्प' नाम के ग्रन्थ से मिलता है। इस ग्रन्थ में विभिन्न प्रकार की धार्मिक विधियों का वर्णन छह अध्यायों में किया गया है । उदाहरणार्थ - यज्ञ - दीक्षाविधि, मण्डपप्रतिष्ठाविधि, वेदी - प्रतिष्ठाविधि, अभिषेक - विधि, विसर्जन विधि, ध्वजारोहण विधि, आचार्य - प्रतिष्ठाविधि, सिद्धप्रतिमा-प्रतिष्ठाविधि, श्रुतदेवता प्रतिष्ठाविधि, यक्षादि प्रतिष्ठाविधि आदि उल्लेखनीय हैं।' 'दिगम्बर परम्परा में इनका जैसा बहुश्रुत गृहस्थ विद्वान और ग्रन्थकार अन्य कोई नहीं दिखाई देता । इन्होंने विपुल परिमाण में साहित्य-सृजन किया है। 'दिगम्बर जैन - परम्परा के साधुवर्ग और गृहस्थवर्ग में जिस आचार-धर्म का पालन किया जाता है उसकी जानकारी के लिए आचार्यकल्प पं. आशाधर का 'धर्मामृत' एक कालोतीर्ण कृति है । जैन परम्परा और प्रवृत्ति के इस मर्मज्ञ मनीषी ने जैनाचार से सम्बद्ध पूर्ववर्ती समग्र आकर - साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन किया था, जिसे उन्होंने अपने 'धर्मामृत' में प्रामाणिक, विश्वसनीय और सुव्यवस्थित रीति से उपस्थापित किया है । ' 'जैनधर्म के जाज्वल्यमान नक्षत्र के रूप में प्रतिष्ठित श्रीमत्पण्डितप्रवर आशाधरजी की कृतियों में 'सागारधर्मामृत' एक श्रावक धर्मदीपक ग्रन्थ है । इसमें श्रावकों के लिए. कौन-सी बातें हेय और उपादेय हैं, इस तथ्य को वैज्ञानिक व तर्कसम्मत ढंग से रेखांकित करते हुए आदर्श एवं उन्नत तथा अहिंसापरक पद्धति पर आधृत धार्मिक जीवनचर्या की अंगीकार करने पर विशेष बल दिया गया है।' 'उनका 'सागारधर्मामृत' उनके वैदुष्य का परिचायक तो है ही, साथ ही उनके विस्तृत स्वाध्याय और निपुणमति को भी द्योतित करता है।" उनका सागारधर्मामृत एक ऐसी रचना बन गई जिसका अध्ययन करने पर पूर्ववर्ती श्रावकाचारों का अध्ययन अपने आप हो जाता है।' 'पण्डित आशाधरजी कृत ' सागारधर्मामृत' में जहाँ श्रावकों के मूल व उत्तर गुणों आदि की चर्चा हुई है, वहीं श्रावकों के लिए कौन-से पदार्थ खाने योग्य हैं और कौन-से त्यागने योग्य हैं ? और क्यों? कितना और कब इनका सेवन किया जाए? इन सबका भी सार्थक विवेचन परिलक्षित है। वर्तमान परिवेश में विभिन्न सामाजिक व धार्मिक संगठनों द्वारा समाज और राष्ट्र के अभ्युदय में तथा मानव कल्याणार्थ उत्तम आहार के प्रति जो जागरण पैदा किया जा रहा है उस दिशा में प्रस्तुत कृति में पं. आशाधरजी भक्ष्य - अभक्ष्य विषयक जो चिन्तन दिया है वह निश्चयेन सम-सामयिक व महत्त्वपूर्ण है । ' 'पण्डितप्रवर आशाधर ने सम्वत् 1300 में 'धर्मामृत' ग्रंथ की रचना पूर्ण की। यह उनकी विद्वत्तापूर्ण कृति है जिसके कारण उन्हें ' आचार्यकल्प' के रूप में अभिहित किया (vii)Page Navigation
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