Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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सम्पादकीय
HASTRA
धार्मिक साधना का मूल लक्ष्य तो आत्मविशुद्धि ही है। निवृत्ति प्रधान जैन धर्म में समग्र साधना राग-द्वेष और कषाय की कलुषता को दूर करने के लिये की जाती है। एक अन्य अपेक्षा से जैन धर्म में मुक्ति का आधार कर्मों का क्षय भी माना गया है। तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय ही मोक्ष है। दूसरी ओर आ. हरिभद्र कहते हैं कि कषायों से मुक्ति ही वस्तुतः मुक्ति है। जहाँ तक राग-द्वेष और कषाय का प्रश्न है वे मूलतः आन्तरिक तत्त्व हैं, किन्तु क्रोधादि कषायों की बाह्यअभिव्यक्ति भी देखी जाती है इसी प्रकार कर्मों के भी दो पक्ष हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म। भावकर्म मूलतः आन्तरिक हैं और आत्मा से ही सम्बन्धित है, जबकि द्रव्यकर्म पौद्गलिक हैं और इस दृष्टि से उन्हें बाह्य भी कहा जा सकता है। जैन दर्शन मानता है कि हमारे मनोभावों का प्रभाव हमारे बाह्य क्रियाकलापों में अभिव्यक्त होता है। अन्तर और बाह्य एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं है। इसी प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्म भी एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं है। अन्तर और बाह्य की यह सापेक्षता ही साधना को दो रूपों में विभक्त कर देती है। आन्तरिक साधना और बाह्य विधि-विधान यदि परस्पर सापेक्ष है तो उन्हें यह मानना होगा कि जहाँ एक ओर आन्तरिक विशुद्धि का प्रभाव हमारे क्रियाकलापों पर होता है वहीं दूसरी
ओर हमारे बाह्य क्रिया-कलाप भी हमारे मनोभावों को प्रभावित करते हैं। यही कारण रहा है कि प्रत्येक धर्मसाधना पद्धति में आन्तरिक विशुद्धि के प्रयत्नों के साथ-साथ बाह्य विधि-विधानों का प्रादुर्भाव हुआ। जैनधर्म भी इसका अपवाद नहीं है। कालक्रम में उसमें भी अनेक प्रकार के विधि-विधान अस्तित्व में आये चाहे हमारी साधना का मूलभूत लक्ष्य आत्मविशुद्धि ही हो, किन्तु उस आत्म–विशुद्धि के लिए जो प्रयत्न व पुरुषार्थ करना होता है वह किसी न किसी रूप में विधि-विधान के साथ जुड़ भी जाता है।
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