________________
लेखकी
देश को, बल्कि दुनिया को, अनेकता में एकता चाहिए। धर्म और राजनीति में समन्वय, नैतिकता और व्यवसाय में सगति, साहित्य और विज्ञान में सहयोग चाहिए। इक्कीसवीं शताब्दी का सर्जनात्मक स्वागत होना चाहिए। इन सभी 'चाहिए' की पूर्ति होगी सस्ते-सुंदर-सुदृढ़ मकानों से, स्थापत्य से, वास्तु से; मकान मनुष्य की मौलिक आवश्यकता है, स्थायी उपयोग की वस्तु है।
वस्तु का अर्थ है द्रव्य । द्रव्य सत् है। सत् वह है, जिसमें उत्पाद और व्यय की निरतर प्रक्रिया चलती रहती है। यह प्रक्रिया चराचर जगत की प्रकृति है। प्रकृति वह कारण है, जिससे वास्तु का निर्माण होता है। इसलिए जो वास्तु प्रकृति के अनुकूल होती है, वह सस्ती-सुंदर-सुदृढ़ होती है।
वास्तु-विद्या निर्माण की विद्या है, ध्वस की नहीं। मनुष्य तो मनुष्य, पशुपक्षी तक सुरक्षा और शाति चाहते है। बया पक्षी का घोंसला कला-कौशल का अद्भुत उदाहरण है, तो चूहे का शत-मुख बिल नीति-निपुणता का प्रतीक है। बया की कला और चूहे की नीति न तो प्रकृति के प्रतिकूल है और न किसी को कष्ट मे डालती हैं; बल्कि मनुष्य का मनोरंजन करती हैं और दूसरे प्राणियो को शरण देती है।
मदिर, मकान, कारखाना, कॉलोनी आदि का निर्माण बया और चूहा के सिद्धात पर हो, तो उससे सुख भी मिलेगा और सुविधा भी; जबकि उससे प्रकृति अक्षत रहेगी और किसी को कष्ट नही पहुँचेगा। इसीलिए वास्तुविद्या के जो नियम और परपराएँ है, वे सात्त्विक विचारो और अहिसक आचार की सूचक हैं, उनके अनुपालन से मनुष्य प्रगति के शिखर पर पहुँचेगा। चितन की यह धारा प्रवाहित हुई है अष्टोत्तर-शत-लक्षण-विभूषित मध्यम-परमेष्ठी आचार्यश्री विद्यानन्द जी से, जिन्हें यह श्लोकाजलि समर्पित है "वदनं प्रासाद-सदनं हृदयं सदयं सुधामुचो वाचः।
करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः ।।" यह पुस्तक इसी धारा का एक बिदु है। इसके पठन-पाठन से दृष्टि
-
जन वास्तु-विद्या