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अनुमानका विकास-क्रम अनुमानका विकास निबद्धरूपमें अक्षपादके न्यायसूत्रसे आरम्भ होता है । न्यायसूत्रके व्याख्याकारों-वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, जयन्त भट्ट, उदयन, श्रीकण्ठ, गंगेश, वर्द्धमानउपाध्याय, विश्वनाथ प्रभृति-ने अनुमानके स्वरूप, आधार, भेदोपभेद, व्याप्ति, पक्षधर्मता, व्याप्तिग्रहण, अवयव आदिका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है । इसके विकासमें प्रशस्तपाद, माठर, कुमारिल जैसे वैदिक दार्शनिकोंके अतिरिक्त वसुबन्धु, दिड्नाग, धर्मकोति, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर, शान्तरक्षित, अर्चट आदि बौद्ध नैयायिकों तथा समन्तभद्र, सिद्धसेन, पात्रल्वामी, अकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, देवसूरि, हेमचन्द्र प्रमुख जैन तार्किकोंने भी योगदान किया है। निःसन्देह अनुमानका क्रमिक विकास तर्कशास्त्रकी दृष्टिसे जितना महत्त्वपूर्ण एवं रोचक है उससे कहीं अधिक भारतीय धर्म और दर्शनके इतिहासको दृष्टिसे भी । यतः भारतीय अनुमान केवल कार्यकारणरूप बौद्धिक ब्यायाम ही नहीं हैं, बल्कि निःश्रेयस-उपलब्धिके साधनोंमें परिगणित है। यही कारण है कि भारतीय अनुमान-परम्पराका जितना विचार तर्कग्रन्थोंमें उपलब्ध होता है उतना या उससे कुछ कम धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र और पुराणग्रग्थोंमें भी पाया जाता है। पर हमारा उद्देश्य स्वतन्त्र दृष्टिसे भारतीय तर्कग्रन्थोंमें अनुमानपर जो चिन्तन उपलब्ध होता है उसीके विकासपर यहाँ समीक्षात्मक विचार प्रस्तुत करना है। ( क ) न्याय-परम्परामें अनुमान-विकास ___ गौतमने अनुमानकी परिभाषा केवल "तत्पूर्वकम्"२ पद द्वारा ही उपस्थित की है । इस परिभाषामें "तत्" शब्द केवल स्पष्ट है, जो पूर्वलक्षित प्रत्यक्षके लिए प्रयुक्त हुआ है और वह बतलाता है कि प्रत्यक्ष-पूर्वक अनुमान होता है, किन्तु वह अनुमान है क्या ? यह जिज्ञासा अतृप्त ही रह जाती है। सूत्रके अग्रांशमें अनुमानके पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट ये तीन भेद उपलब्ध होते हैं। इनमें प्रथमके दो भेदोंमें आगत 'वत्' शब्द भी विचारणीय है। शब्दार्थको दृष्टिसे 'पूर्वके समान' और 'शेषके समान' यही अर्थ उससे उपलब्ध होता है तथा 'सामान्यतोदृष्ट' से 'सामान्यतः दर्शन' अर्थ ज्ञात होता है । इसके अतिरिक्त
१. प्रदोपः सर्वविद्याना..."इह त्वध्याल्मविद्यायामात्मादितत्त्वज्ञान।
-वात्स्यायन न्यायमा० १११११, पृष्ठ ११ । २. गौतम अक्षपाद न्यायसू० ११११५, ।