Book Title: Jain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 279
________________ २५२ : जैन तर्कशासमें अनुमान-विचार कि ऊपर कहा जा चुका है। अनकन्तिकके' छह भेद है-(१) साधारण, १२) असाधारण, ( ३ ) सपक्षकदेशवृत्तिविपक्षव्यापी, (४) विपक्षकदेशवृत्ति सपक्षव्यापी, (५) उभयपक्षकदेशवृत्ति और ( ६ ) विरुद्धाभ्यभिचारी । उद्योतकरने विरुद्धाव्यभिचारीकी समीक्षा करके उसे अस्वीकार किया है। प्रतीत होता है कि इस विरुद्धाव्यभिचारीकी मान्यता न्यायप्रवेशकारसे भी पूर्ववर्ती है, क्योंकि उनके पूर्व प्रशस्तपादने भी उसकी मीमांसा की है और उसे अनध्यवसितमें अन्तर्भूत किया है । धर्मकीर्तिने भी इसे स्वीकार नहीं किया । जयन्तभट्टने" भी इसे नहीं माना। विरुद्ध के चार प्रकार है-(१) धर्मस्वरूपविपरीतसाधन, धर्मविशेषविपरीतसाधन, ( ३ ) मिस्वरूपविपरीतसाधन और ( ४ ) धर्मिविशेषविपरीतसाधन । प्रशस्तपादने विरुद्ध के भेदोंका कोई संकेत नहीं किया। पर उद्योतकरने' अवश्य उसके चार भेदोंका निर्देश किया है। धर्मकोतिने केवल दो भेद स्वीकार किये है। दृष्टान्ताभासके दो भेद अभिहित है' -( १ ) साधर्म्य और ( २ ) वैधयं । साधर्म्य दृष्टान्ताभास पांच प्रकारका है-(१) साधनधर्मासिद्ध, (२) साध्यधर्मासिद्ध, ( ३ ) उभयधर्मासिद्ध, ( ४ ) अनन्वय और ( ५ ) विपरीतान्वय । वैधय॑दृष्टान्ताभासके भी पांच प्रकार है-(१) साध्याव्यावृत्त, ( २ ) साधनाव्यावृत्त, (३) उभयाव्यावृत्त, ( ४ ) अव्यतिरेक और ( ५ ) विपरीतव्यतिरेक । प्रशस्तपादके पूर्वोक्त: बारह निदर्शनाभासोंमे न्यायप्रवेशकारके दृष्टान्ताभासोंसे आश्रयासिद्ध नामक दो निदर्शनाभास अधिक है। अर्थात् न्यायप्रवेशमें जहां दश दृष्टान्ताभास वर्णित है वहां प्रशस्तपादभाष्यम बारह अभिहित हैं। धर्मकोतिने१२ १. न्या० प्र० पृ० ३। २. न्या. वा० १२१४, पृ० १६६ । ३. प्रश० भा० पृ० ११८ ! ४. न्यायवि० १०८६ । ५. न्यायम० पृ० १५५ । ६. न्यायप्र० पृ० ५। ७. प्रश. भा० १०११७ । ८. न्यायवा० १२.४, पृ० १६६ । ९. न्यायबि० पृ० ७८ । १०. न्यायम० पृ० ५-७ । ११. प्रश० भा० पृ० १२३ । १२, साध्यसाधनधोभयविकलास्तथा सन्दिग्धसाध्यधर्मादयश्च ।"अनन्वयोऽप्रदर्शिता न्वयश्च । तथा विपरीतान्वयः । इति साधम्र्येण । वैधयेणापि साध्याघव्यतिरेकिणः । तथा सन्दिग्धसाध्यव्यतिरेकादयः । अव्यतिरेको यथा अप्रदर्शितव्यतिरेको वैधम्यपापि विपरीतव्यतिरेको 'न्यायवि० पृ० ९४-१०।

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