Book Title: Jain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 243
________________ २१६ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान- विचार सहित उसके चार भेदोंका उल्लेख करके उनके साथ समन्वय भी प्रदर्शित किया है । उन्होंने बतलाया है कि उक्त २२ भेद अभूत-भूत ( सद्भावप्रतिषेधक विधिरूप प्रतिषेधसाधन ) हेतुके हैं और वे एकमात्र अन्यथानुपपन्नत्वनियम निश्चयके आधारपर गमक हैं । विधिसाधकविधिरूप हेतुके पूर्वोल्लिखित कार्यादि ६ भेद भूतभूतके प्रकार हैं ।' इस तरह विद्यानन्दने हेतुके प्रथम भेद विधिसाधन ( उपलब्धि ) के विधिसाधक और विधिप्रतिषेधक इन दो भेदों तथा उनके उक्त अवान्तर प्रकारोंको दिखाया है । इसके अनन्तर हेतुके दूसरे भेद प्रतिषेधसाधन ( अनुपलब्धि ) के भी अककी तरह विधिसाधक प्रतिषेधसाधन और प्रतिषेधसाधक प्रतिषेधसाधन इन दो भेदोंका कथन किया है । प्रथमको भूत-अभूत और द्वितीयको अभूत-अभूत कह कर पूर्ववत् कणादोक्त विरोधि लिंगके भेदोंके साथ समन्वय किया है। ध्यातव्य है कि जहां कणादने विरोधि लिंगके मात्र तीन भेदोंका निर्देश किया है वहां विद्यानन्दने उसके चार भेदोंका वर्णन किया है, जिनमें अभूत अभूत नामक प्रकार नया है और जिसको विद्यानन्दने ही परिकल्पना की जान पड़ता है, जो युक्तियुक्त है । विधिसाधक प्रतिषेधसाधन हेतु ( भूत - अभूत ) - जिन हेतुओंमें साध्य सद्भाव ( भूत ) रूप और साधन निषेध ( अभूत ) रूप हो उन्हें विधिसाधक प्रतिषेध ( भूत-अभूत ) हेतु कहते हैं । यथा १. इस प्राणीके व्याधिविशेष है, क्योंकि निरामय चेष्टा नहीं है । इस हेतु का नाम विरुद्ध कार्यानुपलब्धि है । २. सर्वथा एकान्तवादका कथन करने वालोंके अज्ञानादि दोष हैं, क्योंकि उनके युक्ति और शास्त्रसे अविरोधी वचन नहीं हैं । इसे विरुद्धकारणानुपलब्धि कहते हैं, ३. इस मुनिके आप्तत्व है, क्योंकि विसंवादी नहीं है। इसका नाम विरुद्धस्वभावानुपलब्धि है | ४. इस तालफलकी पतनक्रिया हो चुकी है, क्योंकि डंठलके साथ संयोग नहीं है । यह विरुद्ध सहचरानुपलब्धि है । १. प्र० प० पृष्ठ ७४ । २. तदित्थं विधिमुखेन विधायकं प्रतिषेधमुखेन प्रतिषेधकं च लिंगमभिधाय साम्प्रतं प्रतिषेधमुखेन विधायकं प्रतिषेधकं च साधनमभिधीयते । तत्रामूतं भूतस्य विधायकं । -प्र० प० पृ० ७४ । ३. वही, पृ० ७४-७५ ।

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