Book Title: Jain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 275
________________ २४८ : जैन तर्कशासमें अनुमान-विचार असिद्धवर्गमें सम्मिलित कर लिया है। असिद्धके उन्होंने चार भेद बतलाये है(१) उभयासिद्ध, ( २ ) अन्यतरासिद्ध, ( ३ ) तद्भावासिद्ध और (४) अनुमेयासिद्ध । ध्यान रहे, प्रशस्तपादने इन असिद्धभेदों तथा विरुद्धादि हेत्वाभासोंका सोदाहरण कथन किया है। विशेष यह कि उन्होंने लैङ्गिककी सामग्री केवल लिङ्गको ही नहीं, प्रतिज्ञादि पांचों अवयवोंको बतलाया है तथा प्रत्येकका लक्षण देते हुए प्रतिज्ञाके लक्षण में 'अविरोधि' पदका निवेश करके उसके द्वारा प्रत्यक्षविरोधी, अनुमानविरोधी, आगमविरोधी, स्वशास्त्रविरोधी और स्ववचनविरोधी इन पांच प्रतिज्ञाभासोंका निरास किया है। इससे ज्ञात होता है कि उन्हें प्रतिज्ञाभास भी लिङ्गाभासकी तरह अनुमानाभास मान्य है और उसके पांच भेद इष्ट है । प्रशस्तपादसे पूर्व प्रतिज्ञाभासोंका निरूपण उपलब्ध नहीं होता। प्रशस्तपादने दृष्टान्टाभासोंका भो, जिन्हें निदर्शनाभासके नामसे उल्लेखित किया गया है, निरूपण किया है और उनके मूल में साधयं निदर्शनाभास तथा वैधय॑निदर्शनाभास ये दो भेद बतलाये हैं। इन दोनोंके भी छह-छह भेद निम्न प्रकार निर्दिष्ट किये हैं-( १ ) लिंगासिद्ध, ( २ ) अनुमेयासिद्ध, ( ३ ) उभयासिद्ध, ( ४ ) आश्रयासिद्ध, (५) अननुगत और ( ६ ) विपरीतानुगत ये छह साधर्म्यनिदर्शनाभास तथा (१) लिंगाव्यावृत्त, (२) अनुमेयाव्यावृत्त, (३) उभयाव्यावृत्त, (४) आश्रयासिद्ध, (५) अव्यावृत्त और ( ६ ) विपरीतव्यावृत्त ये छह वैधय॑निदर्शनाभास हैं। इस प्रकार प्रशस्तपादने बारह निदर्शनाभासोंका कथन किया है । पर अन्तिम दो अवयवदोषोंअनुसन्धानाभास ( उपनयाभास ) और प्रत्याम्नायाभास ( निगमनाभास ) का कोई निर्देश नहीं किया, जो होना चाहिए था। न्याय-परम्परा : अक्षपादके अनुसार अनुमानको सामग्री पंचावयव हैं- उनसे ही अनुमान समग्ररूप में आत्मलाभ करता है। अतः उनके मतानुसार अनुमानके दोष पांच १. प्रश० मा० पृ० ११६-१२१ । २. विरोधिग्रहणात् प्रत्यक्षानुमानाभ्युपगतस्वशाखस्ववचनविरोधिनी निरस्ता भवन्ति । यथाऽनुष्णोऽग्निरिति प्रत्यक्षविरोधी"। -प्रश० भा० पृ० ११५ । ३. अनेन निदर्शनाभासा निरस्ता भवन्ति । तद्यथा..लिङ्गानुमेयोभयाश्रयासिद्धाननुगतविपरीतानुगताः साधर्म्यनिदर्शनाभासाः । लिङ्गानुमेयोभयाण्यावृत्ताभयासिद्धाव्यावृत्तविपरीतव्यावृत्ता वैधय॑निदर्शनाभासाः। -वही, पृ० १२२, १२३ । ४. वही, १२३-१२७। ५. न्या. सू० १।१।३२ ।

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