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२५२ : जैन तर्कशास भनुमान-विचार यायकलिका' (पृ० १५ )में भी स्थिर रखा है। श्रीसंघवीजोकी सम्भावनापर जब हमने अकलंकसे पूर्ववर्ती ताकिक प्रन्थोंमें अन्यथासिद'का अन्वेषण किया तो उद्योतकरके न्यायवात्तिकमें' 'मन्यथासिद्ध' हेत्वाभास मिल गया, जिसे उन्होंने असिद्ध के तीन भेदोंमें परिगणित किया है । वस्तुतः अन्यथासिद्ध एक प्रकारका अप्रयोजक या अकिंचित्कर हेत्वाभास ही है। जो हेतु निरर्थक हो स्वीकृत साध्यको सिद्ध न कर सके उसे अन्यथासिद्ध अथवा अकिंचित्कर कहना चाहिए । अन्यथसिद्धत्व अन्यथानुपपन्नत्वके अभाव-अन्यषा-उपपन्नत्वके अतिरिक्त कुछ नहीं है । यही कारण है कि अकलंकदेवने सर्वलक्षण ( त्रिरूप अथवा पंचरूपादि) सम्पन्न होने पर भी अन्यथानुपपन्नत्वरहित हेतुओंको अकिंचित्कर 'हेत्वाभासकी संज्ञा दो है। अतएव अकलंकने उद्योतकरके अन्यथासिद्धत्वके आधारपर अकिचित्कर हेत्वाभासको परिकल्पना की हो तो आश्चर्य नहीं। प्रमाणसंग्रहगत प्रतिपादनसे प्रतीत होता है कि वे अकिंचित्करको पृथक् हेत्वाभास भी मानते हैं, क्योंकि असिद्धादि अन्य तीन हेत्वाभासोंके लक्षणोंके साथ उसका भी स्वतन्त्र लक्षण दिया है।
इस हेत्वाभासके सम्बन्धमें डा० महेन्द्र कुमार जैनका मत है कि 'अकलंकदेव. का अभिप्राय अकिंचित्करको स्वतन्त्र हेत्त्वाभास माननेके विषयमें सुदृढ नहीं मालूम होता । वे लिखते हैं कि सामान्यसे एक असिद्ध हेत्वाभास है । वही विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्धके भेदसे अनेक प्रकारका हो जाता है। फिर लिखा है कि अन्यथानुपरत्तिरहित जितने त्रिलक्षण हैं उन्हें अकिंचित्कर कहना चाहिए । इससे ज्ञात होता है कि वे सामान्यसे हेत्वाभासोंको असिद्ध या अकिंचित्कर संज्ञा रखना चाहते हैं।'
इसमें सन्देह नहीं कि अकिंचित्करको स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेको अपेक्षा अकलंकदेवका अधिक झुकाव उसे सामान्य हेत्वाभास और विरुद्धादिको उसीका १. अप्रयाजकत्वं च सर्वहेत्वाभासानामनुगत रूपम्। अनित्याः परमाणवोऽमूर्त्तत्वात् इति सर्वलक्षणसम्पन्नोऽप्यप्रयोजक एव ।
-न्यायक० पृ० १५ । २. सोऽयमसिद्धस्त्रेधा भवति प्रज्ञापनीयधर्मसमानः, आश्रयासिद्धः, अन्यथासिद्धश्चेति ।
न्या. वा० ११२१८, पृ० १७५।। ३. अकिंचित्कारकान् सर्वास्तान् वयं संगिरामहे ।
-न्या० वि० २।२०२, पृ० २३२ । ४. स विरुद्धोऽन्यथाभावात् असिद्धः सर्ववात्ययात् । व्यभिचारी विपक्षेऽपि सिद्धेऽकिचित्करोऽखिला ॥
-प्र० सं०४८, ४९, अ० प्र० पृ० १११ । तथा सि० वि० ६।१२, पृ० ४२६ । ५. प्रस्तावना पृ० २०, न्या. वि. वि. द्वितीय माग ।