Book Title: Jain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 270
________________ भनुमानाभास-विमर्श : २४३ भासादिसे उत्पन्न ज्ञानको अनुमानाभास बतलाते हुए अकलंक और माणिक्यनन्दिको तरह प्रथमतः त्रिविध पक्षाभासों तथा निराकृतपक्षाभासके प्रत्यक्षनिराकृत आदि पांच भेदोंका ९ सूत्रोंमें' एवं सूत्रोक्त 'आदि' शब्दसे स्मरणनिराकृतसाध्यधर्मविशेषण और तर्कनिराकृतसाध्यधर्मविशेषण इन दोका व्याख्या ( स्याद्वादरत्नाकर )में कथन किया है । इसके पश्चात् सिद्धसेनकी तरह तीन हेत्वाभासोंका निरूपण किया है। इनको विशेषता यह है कि इन्होंने उभयासिद्ध और अन्यतरासिद्ध दो असिद्धोंका सूत्रोंमें तथा अन्य स्वीकृत भागासिद्ध, स्वरूपासिद्ध, सन्दिग्धासिद्ध, प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्ध, व्यधिकरणासिद्ध आदि असिद्ध भेदोंकी समीक्षा प्रस्तुत की है । इसी प्रकार पराभिमत आठ विरुद्धभेदोंकी भी मीमांसा करते हुए उन्हें पृथक् स्वीकार नहीं किया। अनैकान्तिकके भी दो ही भेद माने हैं। अठारह दृष्टान्ताभासोंका निरूपण धर्मकीर्ति और वादिराजको तरह है। इनको जो अन्य उल्लेखयोग्य विशेषता है वह है दो उपनयाभासों और दो निगमनाभासोंका नया प्रतिपादन । इसके अतिरिक्त पक्षशुद्धयाभास आदि पांच अन्य अवयवाभासोंका भी संकेत किया है। ध्यातव्य है कि इन्होंने अकलंक और माणिक्यनन्दि स्वीकृत अकिंचित्कर हेत्वाभासकी समीक्षा की है। इनका मन्तव्य है कि अन्यथानुपपत्तिका निश्चय न होनेपर असिद्ध, सन्देह होनेपर अनेकान्तिक और विपरीत ज्ञान होनेपर विरुद्ध ये तीन ही हेत्वाभास आवश्यक हैं, अकिंचित्कर नहीं ? किन्तु जहाँ साध्य सिद्ध ( निश्चित, असन्दिग्ध और अविपरीत ) है वहाँ उसे सिद्ध करने के लिए यदि कोई प्रतिवादी हेतु प्रयोग करे तो उस हेतुको क्या कहा जाएगा ? अतः ऐसे स्थलपर उक्त प्रकारके हेतुको सिद्धमाधन अकिंचित्कर ही कहना होगा। इसीसे अकलंकने 'सिद्धेऽकिंचित्करी हेतुः स्वयं माध्यव्यपेक्षया' (प्र० सं० ४४ ), 'सिद्धेऽकिंचित्करोऽग्विलः' (वही, ४८ ) जैसे प्रतिपादनों द्वारा अकिंचित्कर हेत्वाभासको आवश्यकता प्रदर्शित की है। १. प्र० न० त०६।३८-४६ । २. वही, ६।४० । ३. वही, ६।४७। ४. वही, ६।४८-५१, तथा व्याख्या। ५. वही० ६।५३, पृ० १०२१ । ६. वही, ६।५५ ७. वहो, ६।५८-८० । ८. वही, ६।८१, ८२ । १. वही, ६।५७, पृ० १२३० । १०. वहो, ६।५७, पृ० १२३० ।

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