________________
६६ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार स्थलोंपर दिये हैं। इन लक्षणोंमें मूल आधार तो आत्मार्थ ग्राहकत्व एवं व्यवसायात्मकत्व ही है, पर उनमें अर्थ के विशेषणरूपसे कहीं उन्होंने 'अनधिगत', और कहीं 'अनिर्णीत' पदको दिया हैं। तथा कहीं ज्ञानके विशेषणरूपसे 'अविसंवादि'२ पदको भी रखा हैं । ये पद कुमारिल तथा धर्मकीर्तिसे लिये गये हों तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि उनके प्रमाणलक्षणोंमें ये पद पहलेसे निहित हैं । 3 'अविसंवादि' पद तो धर्मकोतिसे पूर्व जैन चिन्तक पूज्यपादने भी सर्वार्थसिद्धि (१-१२) में दिया है। विद्यानन्द :
विद्यानन्दने यद्यपि संक्षेपमें 'सम्यग्ज्ञान'को प्रमाण कहा है, जो आचार्य गृद्धपिच्छके अनुसरणको व्यक्त करता है। पर पीछे उसे उन्होंने 'स्वार्थव्यवसायात्मक' भी सिद्ध किया है। इस प्रकार उनके प्रमाणलक्षणमें अकलंककी तरह 'अनधिगत' विशेषण प्राप्त नहीं है । फिर भी उन्हें सम्यग्ज्ञानको अनधिगतार्थविषयक या अपूर्वार्थविषयक मानना अनिष्ट नहीं है। अकलंककी तरह उन्होंने भी स्मृत्यादिप्रमाणोंमें अपूर्वार्थताका स्पष्टतया समर्थन किया है। वे उगकी प्रमाणता में अपूर्वार्थताको प्रयोजक बतलाते हैं । प्रमाणके सामान्यलक्षणमें जो उन्होंने 'अप
१,२, प्रमाणमावसंवादि शानम्, अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् ।
-अष्टश० आ० मी० का० ३६, पृष्ठ २२ । तथा देखिए, 'अनिश्चित' और 'अनि
त' पदों के लिए इसी ग्रन्थकी १००वीं का० की अ० श० । ३. ( क ) तत्रापूर्वार्थविज्ञानं ..। -कुमारिल।।
(ख ) प्रमाणविसंवादि शानम् ।-धर्मकोर्ति, प्र. वा० २।१ । ४. सम्यग्शानं प्रमाणम् ।
-प्र०प० पृष्ठ ५१ । ५. त० सू० ११९, १०। ६. कि पुनः सम्यग्ज्ञानम् ? अभिधीयते-स्वार्थव्यवसायात्मकं सम्यग्शानं सम्यग्ज्ञानत्वात् ।
-प्र० प० पृष्ठ ५३ । ७. (क) 'सकलदेशकालव्याप्तसाध्यसाधनसम्बद्धोहापोहलक्षणो हि तर्कः प्रमाणयितव्यः, तस्य कथंचिदपूर्वार्थत्वात् ।'
-प्र०प० पृष्ठ ७०। (ख) स्मृतिः प्रमाणान्तरमुक्तं "न चासावप्रमाणमेव संवादकत्वात् कथंचिदपूर्वार्थग्राहित्वात्।
-प्र०प० पृष्ठ ६७। (ग) गृहीतग्रहणात्तकोऽप्रमाणमिति चेन्न वै । तस्यापूर्थिवेदित्वादुपयोगविशेषतः ॥ -त० श्लोक० १।१३।६२, पृष्ठ १६५ ।