Book Title: Jain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 150
________________ अनुमानभेद-विमर्श : १२३ 3 ज्ञानको स्वार्थानुमान' बतलाया है वह परार्थानुमानमें अतिव्याप्त है, क्योंकि हेतुका ग्रहण और सम्बन्धस्मरण परार्थानुमानमें भी रहते हैं, भले ही वे स्वार्थानुमाता के वचनोंसे हों । हेमचन्द्रकी' यहाँ एक बात और स्मरणीय है। उन्होंने वचनात्मक परार्थानुमानको दो प्रकारका प्रतिपादन किया है - ( १ ) तथोपपत्ति और ( २ ) अन्यथानुपपत्ति । परन्तु माणिक्यनन्दि रे, प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य और देवमूरि प्रभृतिने वचनात्मक परार्थानुमानको दो प्रकारका न मानकर हेतुप्रयोगको दो प्रकारका कहा है जो सिद्धसेन के न्यायावतार के सर्वथा अनुरूप है । यथार्थ में हेतुका प्रयोग दो तरह से किया जाता है - एक तथापपत्तिरूपसे और दूसरा अन्यथानुपपत्ति रूपसे । यथा 6 अग्निमानयं देशस्तथैव धूमवत्त्वोपरत्तेः धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेर्वा" | यह प्रदेश अग्नि वाला है, क्योंकि उसके होने पर ही धूम होता है अथवा अग्निके अभाव मे भ्रम नहीं होता । यहां हेतुका ही प्रयोग दो तरहमे हुआ है, पक्षका प्रयोग तो एक ही प्रकार से । और परार्थानुमान ( वचनात्मक ) पक्ष तथा हेतु दोनोंके वचनको कहा गया है । देवभूरिने' स्पष्ट शब्दों हेतुप्रयोगको ही दो प्रकारका बतलाया है । उल्लेखनीय है कि उन्होंने दो स्वतन्त्र सूत्रों द्वारा उन ( तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति दोनों ) का स्वरूप भी प्रतिपादन किया है। सभी जैन तार्किक इस विषय में एकमत हैं कि हेतुका चाहे तथापपत्तिरूपमें प्रयोग किया जाए और चाहे अन्यथानुपपत्ति " १. तद् द्वेष तथोपपत्त्यन्ययानुपपत्तिमदात् । - प्र० मी० २४४४६ २पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्याऽन्ययानुपपत्त्येव वा पत्र ३. हेतुप्रयोगस्तथापपत्ति- अन्यथानुपपत्तिम्यां द्विकारान ४. हतास्तथा पपच्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यथापि वा । द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति ॥ -न्यायात्र० का० १७ । ५. प० मु० ३९५ । ६. पक्षहेतुवचनात् परार्थमनुमानमुपचारात् इनि । - देवमूरि, प्र० न० ० ३।२३ । ७. हेतुप्रयोगस्तयोपपत्त्यन्ययानुपपत्तिभ्यां द्विमकार इति । वही, ३।२९ । ८. सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तयापपत्तिरिति । असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिरिति । वही, ३३०, ३१ ।

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