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द्वितीय परिच्छेद हेतु-विमर्श
१. हेतु - स्वरूप :
अनुमानका प्रधान आधार स्तम्भ हेतु है । उसके बिना अनुमानको कल्पना ही नहीं की जा सकती । अतएव अनुमानस्वरूप और अवयव-विमर्श के प्रसङ्ग में हेतुके प्रयोगका विचार करते हुए उसके स्वरूपपर भी यत्किंचित् लिखा गया है । यहाँ उसका कुछ विस्तारसे विचार प्रस्तुत है ।
साधारणतया आममान्यता है कि हेतुका स्वरूप त्रिलक्षण अथवा पंचलक्षण है । परन्तु अध्ययन से अवगत होता है कि हेतुका स्वरूप त्रिलक्षण अथवा पंचलक्षण ही दार्शनिकोंने नहीं माना, अपितु एकलक्षण, द्विलक्षण, चतुर्लक्षण, षड्लक्षण और सप्तलक्षण भी उन्होंने स्वीकार किया है ।
अक्षपादने' उदाहरणसादृश्य तथा उदाहरणवैसादृश्यसे साध्यधर्मको सिद्ध करनेवाले साधनवचनको हेतु कहा है । इसका स्पष्टीकरण करते हुए वात्स्यायनने लिखा है कि साध्य ( पक्ष ) और साधर्म्य उदाहरण ( सपक्ष ) में धर्म ( साधन ) के सद्भाव तथा वैधर्म्य उदाहरण ( विपक्ष ) में उसके असद्भावका प्रतिसन्धान कर साध्यको सिद्ध करनेवाला साधनताका वचन हेतु है । जैसे - ' शब्द अनित्य है' इस प्रतिज्ञाको सिद्ध करने के लिए 'उत्पत्ति धर्मवाला होनेसे' ऐसे वचनका प्रयोग करना । जो उत्पत्तिधर्मवाला होता है वह अनित्य देखा गया है। जो उत्पन्न नहीं होता वह नित्य होता है-यथा आत्मादि द्रव्य । उद्योतकरने भाष्यकार दोनोंका विस्तारपूर्वक समर्थन किया है ।
न्यायसूत्रकार और
१. उदाहरणसाधर्म्यात्साध्यसाधनं हेतुः । तथा वैधर्म्यात् । न्यायसू० ११५ ३४, ३५ ।
२. साध्ये प्रतिसन्धाय धर्ममुदाहरणे च प्रतिसन्धाय तस्य साधनतावचनं हेतु : .. 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' इति । उत्पत्तिधर्मकमनित्यं दृष्टमिति । उदाहरणवैधर्म्याच्च साध्यसाधनं हेतुः । कथम् ? अनित्यः शब्दः उत्पत्तिधर्मकत्वात्, अनुत्पत्तिधर्मकं नित्यम् यथा आत्मादिद्रव्यम् ।
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- न्यायभा० १|१|३४, ३५, पृ० ४८, ४९ ।
३. न्यायवा० १|१|३४, ३५ पृ० ११८-१३४ ।