________________
०२ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार विवेचन न होनेपर भी उस समयकी प्रतिपादनशैलीके' अनुसार जो उसमें पांच ज्ञानोंको सम्यग्ज्ञान और तीन ज्ञानोंको मिथ्याज्ञान कहा गया है वह प्रमाण तथा प्रमाणाभासका अवबोधक है । राजप्रश्नीय, नन्दीसूत्र और भगवतीसूत्र में भी ज्ञानमीमांसा पायी जाती है। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाणके मति, श्रत आदि पांच भेदोंकी परम्परा आगममें उपलब्ध होती है ।
पर इतर दर्शनोंके लिए वह अज्ञात एवं अलौकिक जैसी रही, क्योंकि अन्य दर्शनोंके प्रमाण-निरूपणके साथ उसका मेल नहीं खाता । अतः ऐसे प्रयत्नकी आवश्यकता थी कि आगमका समन्वय भी हो जाए और अन्य दर्शनोंके प्रमाण-निरूपणके साथ उसका मेल भी बैठ जाए। इस दिशामें सर्वप्रथम दार्शनिकरूपसे तत्त्वार्थसूत्रकारने समाधान प्रस्तुत किया। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्रमें ज्ञानमीमांसाको निबद्ध करते हुए स्पष्ट कहा कि जो मति आदि पांच ज्ञानरूप सम्यज्ञान वर्णित है वह प्रमाण है और मूलमें वह दो भेदरूप है-१. प्रत्यक्ष और २. परोक्ष । अर्थात् आगममें जिन पाँच ज्ञानोंको सम्यग्ज्ञान कहा गया है वे प्रमाण हैं तथा उनमें मति और श्रुत ये दो ज्ञान परसापेक्ष होनेसे परोक्ष तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन परसापेक्ष न होने एवं आत्ममात्रको अपेक्षासे होनेके कारण प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । आचार्य गृद्धपिच्छकी यह प्रमाण ययोजना इतनी विचारयुक्त तथा कौशल्यपूर्ण हुई कि प्रमाणोंका आनन्त्य भी इन्हीं दोमें समाविष्ट हो जाता है। उन्होंने अतिसंक्षेपमें मति, स्मृति, संज्ञा ( प्रत्यभिज्ञान ), चिन्ता ( तर्क ) और अभिनिबोध ( अनुमान को भी प्रमाणान्तर होनेका संकेत करके और उन्हें मतिज्ञान कहकर 'आये परोक्षम्' सूत्रद्वारा उनका परोक्ष प्रमाणमें समावेश किया, क्योंकि ये सभी ज्ञान परसापेक्ष हैं । वैशेषिकों और बौद्धोंने भी प्रमाणद्वय स्वीकार किया है पर उनका प्रमाण
१. वैशेषिकदर्शनके प्रवतक कणादने भी इसी शंलीसे बुद्धिके अविद्या और विद्या ये
दो भेद बतलाकर अविद्याके संशय आदि चार तथा विद्याके प्रत्यक्षादि चार मेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान ( मिथ्याशान ) को अविद्या और निदोष ज्ञान ( सम्यग्ज्ञान )को विद्याका लक्षण प्रतिपादन किया है।
–देखिए, वैशे० सू० ९।२।७,८,१० से १३ तथा १०१११३ । २. यद्यपि स्थानांग ( २, पृ० ४६, ए ) और भगवती (५, उ. ३, भाग २, पृष्ठ २११) में
भी प्रत्यक्ष-पराक्षरूप प्रमाणद्वयका विभाग निर्दिष्ट है, पर उसे पं० सुखलालजी संघवी नियुक्तिकार भद्रबाहुके बादका मानते हैं जिनका समय विक्रमकी छठी शताब्दी है।
देखिए-प्रमाणमी० टि० पृष्ठ २० । ३. 'मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि शानम् ।' 'तत्प्रमाणे, 'आधे परोक्षम्', प्रत्यक्षमन्यत् ।'
-वहो० १९, १०,११,१२ । ४. वही, १११४ ।