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अनुमानभेद-विमर्श : ११३
उसका न केवल परित्याग हुआ, अपितु वीतादि मात्रामात्रिकादि और संयोगी आदि अनुमानभेदोंकी तरह उसकी समीक्षा भी की गयी है ।
(क) अकलङ्कोक्त अनुमानभेदः - समीक्षा :
अकलङ्कने' उक्त अनुमानोंके त्रैविध्य और चातुविध्य अथवा पाञ्चविध्य नियमों ( पूर्ववत् आदि तीन प्रकारका ही अनुमान हैं, वीत आदि तीन तरहका ही अनुमान है, संयोगी आदि चार या पाँच विध हो अनुमान है ) की समीक्षा करते हुए उन्हें अव्याप्त बतलाया है । 'अस्ति आत्मा प्रमाणतः उपलब्धे', 'सर्वज्ञोऽस्ति सुनिश्चितासम्भवद्वाधकप्रमाणत्वात्' 'खरविषाणं नास्ति अनुपलब्धेः ' आदि समीचीन हेतु हैं, क्योंकि अपने साध्योंके साथ उनका अविनाभाव ( व्याप्ति ) है । पर ये हेतु न पूर्ववत् आदि तीनके अन्तर्गत आते हैं, न वीत आदि नीनमें अन्तर्भूत होते हैं और न संयोगी आदिमें इनका समावेश सम्भव है, क्योंकि उपलब्धि या अनुपलब्धि आत्मादिका कार्य या कारण आदि नहीं है । दूसरी बात यह है कि उक्त हेतुओं ( पूर्ववदादि ) को पक्षधर्मत्वादि त्रिरूपता या पंचरूपता के आधारपर यदि गमक माना जाए तो 'सन्ति प्रमाणानि इष्टसाधनात', 'उद्देष्यति शकटं कृनिकोदयात्" इत्यादि हेतु गमक नहीं हो सकेंगे, क्योंकि इनमें न पक्षधर्मत्वादित्रि पता है और न पंचरूपता । केवल साध्य - साधन में अन्तर्व्याप्ति ( अन्यथानुपपत्ति ) के सद्भावसे ही उनमें गमकता मानी गयी है । अतः अकलंकदेवका मन्तव्य है कि जो हेतु अन्यथानुपपन्नत्वसहित ( अपने साध्य के अभाव में न होने वाले ) हैं व ही साध्यज्ञान ( अनुमान ) के जनक हैं और जो अन्यथानुपपन्नत्वरहित ( अपने साध्यके अभाव में भी रहने वाले ) हैं वे हेतु नहीं, हेत्वाभास हैं और उनसे उत्पन्न होने वाला ज्ञान अनुमानाभास है । तात्पर्य यह कि पूर्ववदादि अथवा वीतादि' या संयोगी आदि हेतु तीन रूपों या पांच रूपोंसे सम्पन्न होने पर भी यदि अन्यथानुपपन्नत्वरहित हैं तो वे हेत्वाभास है। स्पष्ट है कि 'स श्यामस्तन्पुत्रत्वात इतरतत्पुत्रवत्, ' ‘वज्रं लोहलेख्यं पार्थिवत्वात् धातुवन्, ' 'इमान्याम्रफलानि पक्वानि आम्रफलस्वात. प्रसिद्धाम्रफलवत्, इत्यादि हेतु त्रिरूपता और पंचरूपता से युक्त हैं, पर अपने साध्योंक
१. एतेन पूर्ववद्वत-संयांग्यादौ कथा गाता । तल्लक्षणप्रपञ्चश्च निषेद्धव्योऽनया दिशा - न्यायवि० २।१७३, १७४ ।
२. वादिराज, न्या० वि० वि० २।१७३, ५० २०३ ३. पक्षधर्मत्वहीनीऽपि गमकः कृत्तिकोद्रयः । अन्तव्याप्तेरतः सैव गमकत्वसाधन || - वादीभसिंह, स्या० सि० ४।८३-८४ । ४. उतकर, न्या० वा० ४। १ ३५, पृ० १२३ । १५