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जैन प्रमाणवाद और उसमें अनुमानका स्थान : ६७ वार्थ' या 'अनधिगत' विशेषणका निवेश नहीं किया उसका इतना ही तात्पर्य है कि प्रत्यक्ष तो अपूर्वार्थग्राही होता ही है और अनुमानादि भी प्रत्यक्षादिसे अगृहोत देशकालादिविशिष्ट वस्तुको विषय करनेसे अपूर्वार्थ-ग्राहक सिद्ध हो जाते हैं। विद्यानन्दने जिस अपूर्वार्थको समीक्षा की है वह कुमारिलका अभिप्रेत सर्वथा अपूर्वार्थ है,' कथंचिद् अपूर्वार्थ नहीं । कथंचिद् अपूर्वार्थ तो उन्हें इष्ट है । माणिक्यनन्दि :
विद्यानन्दके परवर्ती माणिक्यनन्दिने२ अकलंक तथा विद्यानन्द द्वारा स्वीकृत और समर्थित समन्तभद्रोक्त लक्षणको ही अपनाया है। उन्होंने समन्तभद्रका 'स्व' पद ज्यों-का-त्यों रहने दिया और 'अर्थ' तथा 'व्यवसायात्मक' पदोंको लेकर एवं अर्थके विशेषण रूपसे 'अपूर्व' पदको उसमें जोड़कर 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् प्रमाणलक्षण सृजित किया है। यद्यपि 'अपर्वार्थ' विशेषण कुमारिल के प्रमाणलक्षणमें हम देख चुके हैं तथापि वह अकलंक और विद्यानन्द द्वारा 'कथंचिद् अपूर्वार्थ' के रूपमें जैन परम्परामें भी प्रतिष्ठित हो चुका था । माणिक्यनन्दि ने उसे ही अनुसृत किया है । माणिक्यनन्दिका यह प्रमाणलक्षण इतना लोकप्रिय हुआ कि उत्तरवर्ती अनेक जैन तार्किकोंने उसे ही कुछ आंशिक परिवर्तनके साथ अपने तर्कग्रन्थोंमें मूर्धन्य स्थान दिया है। देवसूरि :
देवसूरिने अपना प्रमाणलक्षण प्रायः माणिक्यानन्दिके प्रमाणलक्षणके आधारपर लिखा है। हेमचन्द्र :
हेमचन्द्रने उक्त लक्षणोंसे भिन्न प्रमाणलक्षण अंकित किया है। इसमें उन्होंने 'स्व' पदका समावेश नहीं किया। उसका कारण बतलाते हुए वे कहते हैं कि
१. त० श्लोक० १।१०।७७, ७८, ७६ । २. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणाम् ।
-५० मु०, १।१।। ३. स्वपरव्यवसायिशानं प्रमाणमिति ।
-प्र० न० त० १२ । ४. सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् ।
-प्र० मी०, ११११२ । ५. स्वनिर्णयः सन्नप्यलक्षणम्, अप्रमाणेऽपि भावात् ।। न हि काचित् शानमात्रा
सास्ति या न स्वसंविदिता नाम । ततो न स्वनिर्णयो लक्षणमुक्तोऽस्मामिः, वृद्धस्तु परीभार्थमुपक्षिप्तः। -प्र० मी०, १११।३, पृ० ४ ।