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६० : जैन तर्कशासमें अनुमान-विचार सम्यक् ज्ञान और सम्यक् प्राप्ति होती है, पर प्रमाणाभाससे नहीं। आचार्य विद्यानन्दने' भी इसी तथ्यको व्यक्त किया है। (ग ) अन्य ताकिकों द्वारा अभिहित प्रमाणका स्वरूप :
'प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' इस व्युत्पत्तिके अनुसार प्रमाण वह है जिसके द्वारा वस्तु प्रमित हो, अर्थात् सही रूपमें जानी जाए । प्रश्न है कि सही जानकारी किसके द्वारा होती है ? इस प्रश्नपर प्रायः सभी प्रमाणशास्त्रियोंने विचार किया हैं। कणादने बतलाया है कि प्रमाण ( विद्या) वह है जो निर्दोष ज्ञान है । गौतम के न्यायमूत्रमें प्रमाणका लक्षण उपलब्ध नहीं होता, पर उनके भाष्यकार वात्स्यायनने अवश्य 'प्रमाण' शब्दसे फलित होनेवाले उपलब्धिसाधन (प्रमाकरण ) को प्रमाण सूचित किया है । उद्योतकर, जयन्तभट्ट' आदि नैयायिकोंने वात्स्यायन के द्वारा सूचित उपलब्धि-साधनरूप प्रमाकरणको ही प्रमाणलक्षण स्वीकृत किया है।
यद्यपि उदयनने यथार्थानुभवको प्रमा कहा है। पर वह उन्हें ईश्वरप्रमाका ही लक्षण अभिप्रेत है। ज्ञात होता है कि अनुभूतिको प्रमाण माननेवाले मीमांसक प्रभाकरका यह उनपर प्रभाव है, क्योंकि उदयनके पूर्व न्यायपरम्परामें प्रमाणसामान्यके लक्षणमें 'अनुभव' पदका प्रवेश उपलब्ध नहीं होता। उनके पश्चात् तो विश्वनाथ , केशव मिश्र, अन्नम्भट्ट प्रभृति नैयायिकोंने अनुभवघटित ही प्रमाणका लक्षण किया है।
१. प्रमाणादिष्टसंसिद्धिरन्यथातिप्रसंगतः । ___ -विद्यानन्द, प्र० ५० पृ ६३ । २. 'अदुष्टं विद्या' । -वैशे० सू० ९।२।१२। ३. न्यायभा० १११॥३, पृ० १६ । ४. न्यायवा० १३१४३, पृ० ५। ५. प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति करणार्थाभिधयिनः प्रमाणशब्दात प्रमाकरणं प्रमाणमव
गम्यते।
न्यायमं० पृष्ठ २५ । ६. यथार्थानुभवा मानमनपेक्षयतेष्यते ।
-उदयन, न्यायकुसु० ४।१। ७. ...बुद्धिस्तु द्विविधा मता । अनुभूतिः स्मृतिश्च स्यादनुभूतिश्चतुविधा ॥
-विश्वनाथ, सिद्धान्तमु० का० ५१ । ८. का षुनः प्रमा, यस्याः करणं प्रमाणम् ? उच्यते- यथार्थानुभवः प्रमा।
-केशवमिश्र, तर्कभा० पृ० १४ । ६. अन्नम्भट्ट, तकसं० पृष्ठ ३२ ।