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जैन प्रमाणवाद और उसमें अनुमानका स्थान : ६१ मीमांसक-मनीषी कुमारिल भट्टने प्रमाणका लक्षण बतलाते हुए कहा है कि जो अपूर्वार्थविषयक, निश्चित, बाधाओंसे रहित, निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न और लोकसम्मत है वह प्रमाण है । इस प्रकार उन्होंने प्रमाणलक्षणमें पांच विशेषणोंका निवेश किया है। यथा
तत्रापर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवजितम् ।
अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ।। पिछले सभी भाट्ट मीमांसकोंने इसी लक्षणको मान्यता दी है। दूसरे दार्शनिकोंकी आलोचनाका विषय भी यही लक्षण रहा है।
मीमांसकपरम्पराके दूसरे सम्प्रदायके प्रभाकरने अनुभूतिको प्रमाण कहा है और शालिकानाथ आदिने उसका समर्थन किया है ।
सांख्यदर्शनमें ईश्वरकृष्ण आदि विद्वानों द्वारा इन्द्रियवृत्तिको प्रमाण बतलाया गया है।
बौद्ध-दर्शन अज्ञातार्थके प्रकाशक ज्ञानको प्रमाण माना गया है। दिड्नागने विषयाकार अर्थनिश्चय और स्वर वितिको प्रमाणका फल कहकर उन्हें ही प्रमाण कहा है, क्योंकि इस दर्शनमें प्रमाण और फलको अभिन्न स्वीकार किया गया है।
१. यह श्लोक ग्रन्थकारोंने कुमारिलकर्तृक माना है। पर वह उनके वर्तमान मामांसा
श्लोकवार्तिकमें उपलब्ध नहीं है। हो सकता है वह प्रतिलिपिकारों द्वारा छूट गया
हा या उनके किसी अन्य ग्रन्थका हो, जो आज अनुपलब्ध है। -ले। २. विद्यानन्द, त० श्लोक० १।१०।७१ । ३. अनुभूतिश्च न: प्रमाणम् ।
-प्रभाकर, बृहती ११११५ । ४. (क) रूपादिपु पंचानामालोचनमात्रमिष्यते वृत्तिः।
-सांख्यका २८। (ख) बुद्धिर हंकारी मनः चक्षुः इत्येतानि चत्वारि युगपद् रूपं पश्यन्ति, अयं स्थाणुः अयं पुरुषः इति । एवमेषां युगपच्चतुष्टयस्य वृत्तिः "क्रमशश्च.....। -माठर वृ. ४७ । (ग) इन्द्रियप्रणालिकया अर्थसन्निकण लिंगशानादिना वा आदौ बुद्धेः अर्थाकारा वृत्तिः जायते।
-नांख्यप्र० मा० पृ० ४७ । योगद० व्यासभाष्य पृ० २७ एवं योगवा० पृ० ३० । ५. अशातार्थशापकं प्रमाणमिति प्रमाणसामान्यलक्षणम् । -प्र० स० का० ३, पृष्ठ ११ । ६. स्वसंवित्तिः फलं चात्र तपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते ॥
-वही, १।१०।