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जैन प्रमाणवाद और उसमें अनुमानका स्थान : ६६ ज्ञापकं प्रमाणम्', 'अज्ञातार्थप्रकाशो वा', 'प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमर्थक्रियास्थिति:3' आदि कथनों द्वारा सौत्रान्तिक ( बहिरर्थाद्वैतवादी ) बौद्ध उसे केवल परसंवेदी मानते हैं। पर किसी भी ताकिकने प्रमाणको स्व और पर दोनोंका एक साथ प्रकाशक नहीं माना । जैन तार्किकोंने ही प्रमाणको स्व और पर दोनोंका एक साथ ज्ञापक स्वीकार किया है। उनका मन्तव्य है कि ज्ञान चमचमाता हीरा अथवा ज्योतिपुञ्ज दीपक है जो अपनेको प्रकाशित करता हुआ उसी कालमें योग्य बाह्य पदार्थोंको भी प्रकाशित करता है। और यह स्वपरप्रकाशक यथार्थ ज्ञान ही प्रमाण है। प्रमाणको व्युत्पत्ति द्वारा हम देख चुके हैं कि 'प्रमीयतेऽनेन प्रमाणम्'जिसके द्वारा प्रमा-अज्ञाननिवृत्ति हो वह प्रमाण है । नैयायिक यह प्रमा सन्निकर्षसे मानते हैं । अतः उनके अनुसार सन्निकर्ष प्रमाण है । वैशेषिकोंका भी यही मत है। सांख्य इन्द्रियवृत्तिसे; मीमांसक इन्द्रियसे, बौद्ध सारूप्य एवं योग्यतासे प्रमिति स्वीकार करते हैं, अत: उनके यहाँ क्रमश: इन्द्रियवृत्ति, इन्द्रिय और सारूप्य एवं योग्यताको प्रमाण माना गया है। समन्तभद्रने स्वपरावभासक ज्ञानको प्रमाण प्रतिपादन करके उक्त मतोंको अस्वीकार किया है । पूज्यपाद:
पूज्यपादने समन्तभद्रका अनुसरण तो किया ही। साथमें सन्निकर्ष और इन्द्रियप्रमाण सम्बन्धी मान्यताओंकी समीक्षा भी प्रस्तुत की है। उनका कहना है कि सन्निकपं या इन्द्रियको प्रमाण माननेपर सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों के साथ इन्द्रियोंका सन्निकर्ष सम्भव न होनेसे उनका ज्ञान असम्भव हैं। फलत. सर्वज्ञताका अभाव हो जाएगा। दूसरे, इन्द्रियाँ अल्प-केवल मात्र स्थूल,
और वर्तमान एवं आसन्न विषयक हैं और ज्ञेय ( सूक्ष्म, व्यवहितादिरूप ) अपरिमित हैं । ऐसी स्थितिमें इन्द्रियोंसे समस्त ज्ञेयों ( अतीत-अनागतों ) का ज्ञान कभी नहीं हो सकता । तीसरे, चक्षु और मन ये दोनों अप्राप्यकारी होनेके कारण सभी इन्द्रियोंका पदार्थोके साथ सन्निकर्ष भी सम्भव नहीं है । चक्षु स्पृष्टका ग्रहण न करने और योग्य दूर स्थितका ग्रहण करनेसे अप्राप्यकारी है ।" यदि चक्षु अप्रा
१. दिङ्नाग, प्र० समु० ( स्वोपशवृ० ) १ । २. प्रमाणवा० २।५। ३. वही, २।१। ४. पूज्यपाद, सर्वा० सि० १११० । ५. (क) अप्राप्यकारि चक्षुः स्पृष्टानवग्रहात् । यदि प्राप्यकारि स्यात् त्वगिन्द्रियवत् स्पृष्टमंजनं गृह्णीयात् न तु गृह्णात्यतो मनोदप्राप्यकारीति ।
-स० सि० १११९, पृष्ठ ११६ । (ख) अकलंक, त० वा० १११६, पृ० ६७, ६८,। (ग) डा. महेन्द्रकुमार जैन, जैन दर्शन पृष्ठ २७० ।