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अध्याय : २
प्रथम परिच्छेद
जैन प्रमाणवाद और उसमें अनुमान
का स्थान
अनुमानका विस्तृत विचार करनेसे पूर्व यह आवश्यक है कि प्रमाणके प्रयोजन, स्वरूप, भेद एवं परोक्ष-प्रमाणपर भी विमर्श किया जाय, क्योंकि प्रमाणकी चर्चाके बिना अनुमानके स्वरूप आदिका स्पष्टीकरण सम्भव नहीं है । अतएव यहाँ प्रथमतः प्रमाणपर विचार किया जाता है ।
( क ) तत्त्व :
तत्त्व, अर्थ, वस्तु और सत् ये चारों शब्द पर्यायवाची हैं । जो अस्तित्व स्वभाववाला है वह सत् है तथा तत्त्व, अर्थ और वस्तु ये तीनों अस्तित्व स्वभावसे बाहर नहीं हैं । इसलिए सत्का जो अर्थ है वही तत्त्व, अर्थ और वस्तुका है और अर्थ इन तीनोंका है वही सत्का है । निष्कर्ष यह कि ये चारों शब्द एकार्थक हैं । तत्त्व दो समूहों में विभक्त है - १. उपायतत्त्व और २. उपेयतत्त्व । उपायतत्त्व दो प्रकारका है - १. ज्ञापक और २. कारक । ज्ञापक भी दो तरहका है१. प्रमाण और २. प्रमाणाभास ।
प्रमाण और प्रमाणाभासमें यह अन्तर है कि प्रमाण द्वारा यथार्थ जानकारी
१. 'उपायतत्त्वं ज्ञापकं कारकं चेति द्विविधम् । तत्र ज्ञापकं प्रकाशकमुपायतत्त्वं ज्ञानं कारकं तूपायतत्त्वमुद्योगदेवादि ।'
- अष्टस० टिप्प० पृ० २५६ ।