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संक्षिप्त अनुमान - विवेचन : ३७
है । पर जैन नैयायिकोंने' पक्षधर्मतापर उतना बल नहीं दिया, जितना व्याप्तिपर दिया है । सिद्धसेन २, अकलंक 3, विद्यानन्द ४, वादीभसिंह" आदिने तो उसे अनावश्यक एवं व्यर्थ भी बतलाया है । उनका मन्तव्य है कि 'कल सूर्यका उदय होगा, क्योंकि वह आज उदय हो रहा है, 'कल शनिवार होगा, क्योंकि आज शुक्रवार है', 'ऊपर देशमें वृष्टि हुई है, क्योंकि अधोदेशमें प्रवाह दृष्टिगोचर हो रहा है', 'अद्वैतवादीको भी प्रमाण इष्ट हैं, क्योंकि इष्टका साधन और अनिष्टका दृषण अन्यथा नहीं हो सकता' जैसे प्रचुर हेतु पक्षधर्मता के अभाव में भी मात्र अन्तर्व्याप्तिके बलपर साध्य के अनुमापक हैं ।
( ख ) व्याप्ति :
अनुमानका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य अंग व्याप्ति है । इसके होनेपर ही साधन साध्यका गमक होता है, उसके अभाव में नहीं । अतएव इसका दूसरा नाम 'अविनाभाव' भी है। देखना है कि इन दोनों शब्दों का प्रयोग कबसे आरम्भ हुआ है ।
अक्षपाद' के न्यायमूत्र और वात्स्यायन के न्यायभाष्य में न व्याप्ति शब्द उपलब्ध होता है और न अविनाभाव । न्यायभाष्य में मात्र इतना मिलता है कि लिंग और लिंगी सम्बन्ध होता है अथवा वे सम्बद्ध होते हैं । पर वह सम्बन्ध व्याप्ति अथवा अविनाभाव है, इस वहाँ कोई निर्देश नहीं है । गौतमके हेतुलक्षणप्रदर्शक सूत्रों से भो केवल यही ज्ञात होता है कि हेतु वह है जो उदाहरण के साधर्म्य अथवा वैधर्म्यमे साध्यका साधन करे । तात्पर्य यह कि हेतुको पक्षमें रहने के अतिरिक्त सपक्ष में विद्यमान और विपक्षमे व्यावृत्त होना चाहिए, इतना ही अर्थ हेतुलक्षणसूत्रोंसे ध्वनित होता है, हेतुको व्याप्त ( व्याप्तिविशिष्ट या अविना
१. न्यायवि० २२१७६ ।
२. सिद्धसेन, न्यायात्र० का ० २० ।
३. न्यायवि० २२२२१ |
४. प्रमाणपरी० पृष्ठ ७२ ।
५. वाडीभसिंह, स्या० सि० ४। ७ ।
६. अकलंक, लघीय० १ ३ | १४ |
७. न्यायसू० १११।५, ३४, ३५ ।
८. न्यायमा० १११।५, ३४, ३५ ।
९. लिंगलिंगिनोः सम्बन्धदर्शनं लिंगदर्शनं चाभिसम्बध्यते । लिंगलिंगिनोः सम्बद्ध योर्दर्शनेन
लिंगस्मृतिरभिसम्बध्यते ।
-न्यायभा० १।१।५ ।
१०. उदाहरणसाधर्म्यात् साध्यसाधनं हेतुः । तथा वैधर्म्यात् ।
- न्यायस० १।१ । ३४, ३५ ।