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संक्षिप्त अनुमान-विवेचन : ४५ होता है और उसके निष्पादक अंगोंको अवयव कहा गया है । परार्थानुमानवाक्यके कितने अवयव होने चाहिए, इस सम्बन्धमें ताकिकोंके विभिन्न मत हैं। न्यायसूत्रकारका मत है कि परार्थानुमान वाक्यके पांच अवयव हैं--१. प्रतिज्ञा, २. हेतु, ३. उदाहरण, ४. उपनय और ५. निगमन । भाष्यकारने सूत्रकारके इस मतका न केवल समर्थन ही किया है, अपितु अपने कालमें प्रचलित दशावयवमान्यताका निरास भी किया है। वे दशावयव है-उक्त ५ तथा ६. जिज्ञासा, ७. संशय, ८. शक्यप्राप्ति, ९. प्रयोजन और १०. संशयव्युदास ।
यहां प्रश्न है कि ये दश अवयव किनके द्वारा माने गये हैं ? भाष्यकारने उन्हें 'दशावयवानेके नैयायिका वाक्ये संचक्षते' शब्दों द्वारा 'किन्हीं नैयायिकों की मान्यता बतलाई है । पर मूल प्रश्न असमाधेय ही रहता है।
हमारा अनुमान है कि भाष्यकारको 'एके नैयायिका:' पदसे प्राचीन सांख्यविद्वान् युक्तिदीपिकाकार अभिप्रेत हैं, क्योंकि युक्तिदीपिकामें उक्त दशावयवोंका न केवल निर्देश है किन्तु स्वमतरूपमें उनका विशद एवं विस्तृत व्याख्यान भी है। युक्तिदीपिकाकार उन अवयवोंको बतलाते हुए पतिपादन करते हैं कि 'जिज्ञासा, संशय, प्रयोजन, शक्यप्राप्ति और संशयव्युदास ये पाँच अवयव व्याख्यांग हैं तथा प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपसंहार और निगमन ये पाँच परप्रतिपादनांग । तात्पर्य यह कि अभिधेयका प्रतिपादन दूसरोंके लिए प्रतिज्ञादि द्वारा होता है और व्याख्या जिज्ञासादि द्वारा । पुनरुक्ति, वैयर्थ्य आदि दोषोंका निरास करते हए युक्तिदीपिकामें कहा गया है कि विद्वान् सबके अनुग्रहके लिए जिज्ञासादिका अभिधान करते हैं । यतः व्युत्पाद्य अनेक तरहके होते हैं-सन्दिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न । अतः इन सभीके लिए सन्तॊका प्रयास होता है । दूसरे, यदि प्रतिवादी प्रश्न करे कि क्या जानना चाहते हो? तो उसके लिए जिज्ञासादि अवयवोंका वचन आवश्यक है किन्तु प्रश्न न करे तो उसके लिए वे नहीं भी कहे जाएँ।
१. न्यायसू १११.३२ ।। २-३. न्यायभा० १२१६३२, पृष्ठ ४७ । ४-५. तस्य पुनर वयवा:-जिज्ञासा-सं० य-प्रयाजन-शक्यप्राप्ति-संशयव्युदासलक्षणाश्च व्याख्यांगम्, प्रतिज्ञा-हेतु-दृष्टाम्तोपसंहार-निगमनानि परप्रतिपादनांगाति ।
-युक्तिदो० का० ६, पृष्ठ ४७ । ६. अत्र ब्रूमः-न, उक्तत्वात् । उक्तमेतत् पुरस्तात् व्याख्यांगं जिशासादयः । सर्वस्य चानु
ग्रहः कर्त्तव्य इत्येवमर्थ च शास्त्रव्याख्यानं विपश्चिभिः प्रत्याय्यते, न स्वार्थ सस्वदशबुद्धयर्थ वा। -वही० का० ६, पृष्ठ ४९ ।