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संक्षिप्त अनुमान-विवेचन : ४३ सांख्यदर्शनमें वाचस्पतिके' अनसार वीत और अवीत ये दो भेद भी मान लिये हैं । वीतानुमानको उन्होंने पूर्ववत् और सामान्यतोदृष्ट द्विविधरूप और अवीतानुमानको शेषवत्रूप मानकर उक्त अनुमान त्रविघ्यके साथ समन्वय भी किया है। ध्यातव्य है कि सांख्योंकी सप्तविध अनुमान-मान्यताका भी उल्लेख उद्योतकर', वाचस्पति और प्रभाचन्द्रने किया है। पर वह हमें सांख्यदर्शनके उपलब्ध ग्रन्थों में प्राप्त नहीं हो सकी। प्रभाचन्द्रने तो प्रत्येकका स्वरूप और उदाहरण देकर उन्हें स्पष्ट भी किया है।
__ आगे चलकर जो सर्वाधिक अनुमानभेद-परम्परा प्रतिष्ठित हुई वह है प्रशस्तपादकी उक्त----१ स्वार्थ और २ परार्थभेदवाली परम्परा । उद्योतकरने" पूर्ववदादि अनुमानत्रैविध्यको तरह केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी इन तीन नये अनुमान-भेदोंका भी प्रदर्शन किया है। किन्तु उन्होंने और उनके उत्तरवर्ती वाचस्पति तकके नैयायिकोंने प्रशस्तपादनिर्दिष्ट उक्त स्वार्थ-परार्थ के अनुमानद्वैविध्यको अंगीकार नहीं किया। पर जयन्तभट्ट और उनके पाश्चात्वर्ती केशव मिश्र' आदिने उक्त अनुमानढविष्यका मान लिया है।
बौद्ध दर्शनमें दिड़नागसे पूर्व उक्त विध्यकी परम्परा नहीं देखी जाती। परन्तु दिड्नागने उसका प्रतिपादन किया है। उनके पश्चात् तो धर्मकिति आदिने इसीका निरूपण एवं विशेष व्याख्यान किया है ।
जैन तार्किकोंने° इसी स्वार्थ-परार्थ अनुमानद्वैविध्यको अंगीकार किया है और अनुयोगद्वारादिपतिपादित अनुमानत्रैविध्यको स्थान नहीं दिया, प्रत्युत उसकी समीक्षा की है।
१. सां० त० कौ० का० ५, पृ० ३०-३२ । २. न्यायवा० १११५, पृष्ठ ५७ । ३. न्यायवा० ता० टी० ११११५, पृष्ठ १६५ । ४. न्यायकु० च० ३३१४, पृष्ठ ४६२ । ५. न्यायवा० १११५, पृष्ठ ४६ । ६. न्यायमं० पृष्ठ १३०, १३१ । ७. तकभा० पृ० ७९ । ८. प्रमाणसमु० २।१। ६. न्याबि० पृ० २१, द्वि० परि० । १०. सिद्धसेन, न्यायाव० का०१० । अकलंक, सि० वि० ६।२, पृष्ठ ३७३, । विद्यानन्द,
प्र०प० पृ० ७६ । मापिाक्यनन्दि, परी० मु० ३१५२, ५३ । देवसूरि, प्र० न० त०
३॥६,१०, । हेमचन्द्र, प्रमाणमी० १।२।८, पृष्ठ ३९ आदि। ११. अकलंक, न्यायविनि० ३४१,३४२, । स्याद्वादर० पृष्ठ ५२७ । आदि ।