________________
५२ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार
अननुगत और विपरोतानुगत ये तीन साधर्म्य तथा आश्रयसिद्ध, अव्यावृत्त और विपरीतव्यावृत्त ये तीन वैधय॑निदर्शनाभास हैं। और न्यायप्रवेशमें अनन्वय तथा विपरीतान्वय ये दो साधर्म्य और अव्यतिरेक तथा विपरीतव्यतिरेक ये दो वैधर्म्य दृष्टान्ताभास उपलब्ध हैं। पर हाँ, धर्मकोतिके न्यायबिन्दुमें उनका प्रतिपादन मिलता है। धर्मकीर्तिने सन्दिग्धसाध्यादि उक्त तीन साधर्म्य दृष्टान्ताभासों और सन्दिग्धव्यतिरेकादि तान वैधयं दृष्टान्ताभासोंका स्पष्ट निरूपण किया है। इसके अतिरिक्त धर्मकीर्तिने न्यायप्रवेशगत अनन्वय, विपरीतान्वय, अव्यतिरेक और विपरोतव्यतिरेक इन चार साधर्म्य-वैधयं दृष्टान्ताभासोंको अपनाते हुए अप्रदर्शितान्वय और अप्रदर्शितव्यतिरेक इन दो नये दृष्टान्ताभासोंको और सम्मिलित करके नवनव साधर्म्य-वैधर्म्य दृष्टान्ताभास प्रतिपादित किये हैं। ___अकलंकने पक्षाभासके उक्त सिद्ध और बाधित दो भेदोंके अतिरिक्त अनिष्ट नामक तीसरा पक्षाभास भी वगित किया है। जब साध्य शक्य ( अबाधित ), अभिप्रेत ( इष्ट ) और असिद्ध होता है तो उसके दोष भी बाधित, अनिष्ट और सिद्ध ये तीन कहे जाएंगे। हेत्वाभासोंके सम्बन्धमें उनका मत है कि जैन न्यायमें हेतु न त्रिरूप है और न पाँच-रूप, किन्तु एकमात्र अन्यथानुपपन्नत्त्व ( अविनाभाव ) रूप है । अतः उसके अभावमें हेत्वाभास एक ही है और वह है अकिचित्कर । असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक ये उसीका विस्तार हैं। दृष्टान्तके विषयमें उनको मान्यता है कि वह सर्वत्र आवश्यक नहीं है। जहाँ वह आवश्यक है वहां उसका और उसके साध्यविकलादि दोषोंका कथन किया जाना योग्य है।
माणिक्यनन्द, देवसूरि , हेमचन्द्र" आदि जैन तार्किकोंने प्रायः सिद्धसेन और अकलंकका ही अनुसरण किया है ।
इस प्रकार भारतीय तर्क ग्रन्थोंमें अनुमानस्वरूप, अनुमानभेदों, अनुमानांगों, अनुमानावयवों और अनुमानदोषोंपर पर्याप्त चिन्तन उपलब्ध है।
१. न्या०बि० तृ० परि० पृष्ठ ९४-१०२ । २. न्यायविनि० का० १७२, २९६, ३६५, ३६६, ३७०, ३८१ । ३. परीक्षामु० ६।१२-५० । ४. प्रमाणन० ६।३८-८२ । ५, प्रमाणमी० १।२।१४, २।१।१६-२७ ।