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३४ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार
उपर्युक्त उदाहरणमें धूमद्वारा वह्निका ज्ञान इसी कारण होता है कि धूम वह्निका साधन है । धूमको अग्निका साधन या हेतु' माननेका भी कारण यह है कि धूमका अग्निके साथ नियत साहचर्य सम्बन्ध-अविनाभाव है। जहां धूम रहता है वहाँ अग्नि अवश्य रहती है। इसका कोई अपवाद नहीं पाया जाता । तात्पर्य यह कि एक अविनाभावो वस्तुके ज्ञान द्वारा तत्सम्बद्ध इतर वस्तुका निश्चय करना अनुमान है। अनुमानके अंग : __अनुमानके उपर्युक्त स्वरूपका विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि धूमसे अग्निका ज्ञान करनेके लिए दो तत्त्व आवश्यक है-१. पर्वतमें धूमका रहना और २. धूमका अग्निके साथ नियत साहचर्य सम्बन्ध होना । प्रथमको पक्षधर्मता और द्वितीयको व्याप्ति कहा गया है। यही दो अनुमानके आधार अथवा अंग है। जिस वस्तुसे जहाँ सिद्धि करना है उसका वहाँ अनिवार्य रूपसे पाया जाना पक्षधर्मता है। जैसे धूमसे पर्वतमें अग्निकी सिद्धि करना है तो धूमका पर्वतमें अनिवार्य रूपसे पाया जाना आवश्यक है। अर्थात् व्याप्यका पक्ष में रहना पक्षधर्मता है। तथा साधनरूप वस्तुका साध्यरूप वस्तुके साथ ही सर्वदा पाया जाना व्याप्ति है। जैसे धूम अग्निक होने पर हो पाया जाता है उसके अभावमें नहीं, अतः धूमकी वह्निके साथ व्याप्ति है । पक्षधर्मता और व्याप्ति दोनों अनुमानके आधार हैं । पक्षधर्मताका ज्ञान हुए बिना अनुमानका उद्भव सम्भव नहीं है । उदाहरणार्थ ---पर्वतमें धूमकी वृत्तिताका ज्ञान न होने पर वहाँ उससे अग्निका अनुमान नहीं किया जा सकता। अतः पक्षधर्मताका ज्ञान आवश्यक है। इसी प्रकार व्याप्तिका ज्ञान भी अनुमानके लिए परमावश्यक है। यतः पर्वतमें धूमदर्शनके अनन्तर भी तब तक अनुमानकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, जब तक धूमका अग्निके साथ अनिवार्य सम्बन्ध स्थापित न हो जाए। इस अनिवार्य सम्बन्धका नाम ही १. साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः ।
-माणिक्यनन्दि, परीक्षामु० ३।१५ । २ व्याप्यस्य ज्ञानेन व्यापकस्य निश्चयः, यथा वहिर्दू मस्य व्यापक इति घूमस्तस्य व्याप्त
इत्येवं तयोभूयः सहचारं पाकस्थानादौ दृष्ट्वा पश्चात्पर्वतादौ उद्ध्यमानशिखस्य धूमस्य दर्शने तत्र वह्निरस्तीति निश्चीयते। -वाचस्पत्यम्, अनुमानशब्द, प्रथम जिल्द पृष्ठ १८१, चौखम्बा, वाराणसी, सन् १६६२ ई० । ३. अनुमानस्य द्वे अंगे व्याप्तिः पक्षधर्मता च ।
-केशवमिश्र, तर्कभाषा, अनु० निरू० पृष्ठ ८८, ८९ । ४. व्याप्यस्य पर्वतादिवृत्तिवं पक्षधमंता।।
-अन्नम्भट्ट, तर्कसं० अनु० वि०, पृष्ठ ५७ ।