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२० : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार अपितु असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक तीन अभिहित हैं। जैसी यक्तियां और प्रतियुक्तियाँ इसमें प्रदर्शित हैं उनसे अनुमानका उपहास ज्ञात होता है। पर इतना स्पष्ट है कि शास्त्रार्थ में विजय पाने और विरोधीका मुँह बन्द करनेके लिए सद्-असद् तर्क उपस्थित करना उस समयको प्रवृति रही जान पड़ती है। ___ उपायहृदयन चार प्रकरण है। प्रथममें वादके गुण-दोषोंका वर्णन करते हुए कहा गया है कि वाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि उससे वाद करनेवालोंको विपुल क्रोध और अहंकार उत्पन्न हो जाता है. चित्त विभ्रान्त, मन कठोर, परपाप प्रकाशक और स्वकीय पाण्डित्यका अन मोदक बन जाता है। इसके उत्तरमें कहा गया है कि तिरस्कार, लाभ और ख्यातिके लिए वाद नहीं, अपितु सुलक्षण और दुर्लक्षण उपदेशको इच्छासे वह किया जाना चाहिए। यदि लोकमें वाद न हो तो मूर्योका बाहुल्य हो जाएगा और उससे मिथ्याज्ञानादिका साम्राज्य जम जाएगा। फलतः संसारकी दुर्गति तथा उत्तम कार्योको क्षति होगी। इस प्रकरणमें न्यायसूत्रकी तरह प्रत्यक्षादि चार प्रमाण और पूर्ववदादि तीन अनुमान वणित हैं । आठ प्रकारके हेत्वाभासों आदिका भी निरूपण है। द्वितीयमें वादधर्मों आदि का, तृतीयमें दूपणों आदिका और चतुर्थ में बीस प्रकारके प्रश्नोत्तर धर्मों, जिनका न्यायसूत्र में जातियोंके रूपमें कथन है, आदिका वणन है। उल्लेख्य है कि इसमें पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट इन अनुमानोंके जो उदाहरण दिये गये है वे न्यायभाष्यगत उदाहरणोंसे भिन्न तथा अनुयोगसूत्र और युक्तिदीपिकासे' अभिन्न हैं । इससे प्रतीत होता है कि इसमें किसी प्राचीन परम्पराका अनुसरण है।
यहाँ इन दोनों ग्रन्थोंके संक्षिप्त परिचयका प्रयोजन केवल अनुमानके प्राचीन स्रोतको दिखाना है । परन्तु उत्तरकालमें इन ग्रन्थोंकी परम्परा नहीं अपनायी गयी । न्यायप्रवेश में अनुमानसम्बन्धी अभिनव परम्पराएँ स्थापित की गयी हैं ।
१. यथापूर्वमवतास्त्रिविधाः । असिद्धोऽमैकान्तिको विरुद्धश्चेति हेत्वाभासाः ।
-तकशास्त्र पृष्ठ ४० । २. वही, पृष्ठ ३ । ३. उपायहृदय पृष्ठ ३। ४. वही पृष्ठ ६-१७, १८--२१, २२-२५, २६-३२ । ५. यथा षटंगुलिं सपिडकमूर्धानं बालं दृष्ट्वा पश्चाद्धं बहुश्रुतं देवदत्तं दृष्ट्वा षडंगुलिस्मरणात सोऽयमिति पूर्ववत् । शेषवत् यथा, सागरसलिलं पीत्वा तल्लवणं समनुभूय शेष
मपि सलिलं तुल्यमेव लवणमिति ।-वही, पृष्ठ १३ । ६. सं० मुनिश्री कन्हैयालाल, मूलसुत्ताणि, अ० सू० पृष्ठ ५३६ । ७. यु० दी० का० ५, पृष्ठ ४५। ८. न्या० प्र० पृष्ठ १-८॥